आलेख/विमर्श
अशोक की माँ- माँ धर्मा
बात चाणक्य के समकाल की है, जब उनके एक शिष्य वागीश की अत्यंत रूपवती कन्या सुनती है कि उसकी जन्मपत्री में राजयोग लिखा है। ज्योतिषाचार्य ये भी कहते हैं कि एक दिन उस ग़रीब की यह कन्या किसी साम्राज्य की साम्राज्ञी अवश्य बनेगी।
वह मौर्य वंश के प्रथम सम्राट चंद्रगुप्त का समय था। किन्तु सम्राट वय में उस कन्या के पिता वागीश से भी कुछ अधिक ही रहे होंगे। इसलिए पति रूप में उनका तो वह विचार भी नहीं करना चाहती थी, लेकिन उनके पुत्र युवराज के सपने उसने ज़रूर पलकों पर सजा लिए। उस ग़रीब लड़की का सपना सत्य सिद्ध हो जाना बेहद कठिन था किंतु निश्चय की धनी उस लड़की ‘धर्मा’ ने हार न मानी। दिन-प्रतिदिन अपने आप को रूप, गुण, बुद्धि में द्विगुणित करती चली गई कि आखिर एक न एक दिन उसे मौर्य साम्राज्य की साम्राज्ञी बनना है। परिस्थितियाँ उसे मौर्य साम्राज्य के अंत:पुर पहुंचा भी देती हैं। युवराज बिंदुसार के समक्ष जब उसे लाया गया तो वो उस रूपवती को देख ठगे से रह गये और युवराज उसे दासी रूप में क्रीत करने को सहर्ष तैयार हो भी जाते हैं। किंतु युवती तो मन में ठान कर आई थी इसलिए साहस कर बोली- “युवराज बिंदुसार! हम यहाँ मौर्य वंशजा बनने आए हैं, दासी बनने नहीं।” इस अनन्य सुंदरी ‘धर्मा’ के रूप से वशीभूत बिंदुसार तुरंत उसे अपनी रानी बनाने को राज़ी हो जाते हैं। धर्मा का सपना तुरंत ही सत्य हो जाता किंतु इतने में महाराज चंद्रगुप्त के संन्यास ग्रहण कर जैन मुनियों के साथ दक्षिण की ओर रवाना हो जाने की सूचना आती है। आकस्मिक सूचना से चकित युवराज बिंदुसार भी उनके पीछे-पीछे चल देते हैं। महाराज चंद्रगुप्त और युवराज बिंदुसार की अनुपस्थिति में अंत:पुर और राजकाज का नियंत्रण स्वयमेव युवराज की प्रथम पत्नी काशी की राजकुमारी चारूमित्रा के हाथ में आ गया। युवराज्ञी चारूमित्रा जब अंत:पुर वासियों को निर्देशित कर रही थी कि उनकी नज़र धर्मा पर पड़ी। धर्मा जैसी अनिंद्य सुंदरी में उन्हें अपनी प्रतिद्वंद्विनी दिखाई पड़ी। पूछने पर किसी ने उन्हें बता भी दिया कि युवती युवराज से विवाह की इच्छुक है। और युवराज ने भी प्रस्ताव पर सहमति जताई है। अत: युवराज के लौटने तक इस युवती को राजसी सम्मान के साथ रखा जाना चाहिए। चारूमित्रा का मन हुआ कि अभी के अभी युवती धर्मा को काट कर लाश गंगा में बहा दे।
यद्यपि चारूमित्रा के सिवा बिंदुसार की पंद्रह उपपत्नियाँ और भी थीं। किंतु वह सब किसी न किसी राजपरिवार की कन्याएं थीं और इस ग़रीब निर्धन ब्राह्मण की कन्या का दुस्साहस तो देखो! युवराज से विवाह करेंगी ये!
धर्मा का अपमान करने के लिए वह उसे नाइन का काम सिखवाने के लिए सुगांगेय महल की पुरानी दासी दाखी माँ को सौंप देती हैं। ज्येष्ठ पुत्र सुसीम की मालिश करना, नहलाना-धुलाना और मल-मूत्र के कपड़े साफ करना और चारूमित्रा की मालिश करने का काम धर्मा को जानबूझकर दिया गया था ताकि युवराज्ञी उसे पल-पल अपमानित होता हुआ देख सकें। इस तरह नाइन बनकर मालिश करते-करते धर्मा के स्वर्णिम सपने भी मसले जाते थे किंतु उसने धैर्य न खोया। कई महीनों के बाद जब युवराज बिंदुसार वापस आए तो चारूमित्रा के दुर्भाग्यवश और धर्मा के सौभाग्यवश दाखी माँ ने उस दिन धर्मा को ही युवराज की मालिश का भार सौंप दिया। युवराज, धर्मा की तरफ पीठ कर औंधे मुँह पलंग पर लेटे हुए थे। धर्मा की रेशमी अंगुलियों का स्पर्श उन्हें चौंका गया कि ये आज कौन मालिश के लिए आ गयी। खूबसूरत धर्मा को कई माह बाद देखकर प्रीत का ज्वार उमड़ पड़ा। धर्मा ने याद दिलाया कि वह अब भी युवराज के साथ परिणय सूत्र में बंधने का इंतजार कर रही है। युवराज ने कहा- “किंतु कोई नाइन कैसे मौर्य साम्राज्य की महारानी बन सकती है?”
तब उसने परिचय दिया कि वह आचार्य चाणक्य के शिष्य वागीश की पुत्री है, ब्राह्मण है। अंत:पुर ने उसे अपमानित करने के लिए नाइन के काम पर लगा दिया है। इस तरह जो वह बिंदुसार से परिणय सूत्र में बँधी तो फिर पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी पद भी उसे ही मिला। पंद्रह पत्नियों के पति महाराज बिंदुसार सबको भूल चालीस वर्ष सिर्फ ‘शुभद्रांगी’ धर्मा के होकर रह गए। इधर चारूमित्रा अपने अपमान से व्यथित होकर मद्यप हो गई। हमेशा बिंदुसार की अन्य उपपत्नियों को साथ लेकर धर्मा को कोसती रहती। उसे गालियाँ देती रहती। उन्हें बस अब एक ही सहारा था कि महाराज ने अपने राज्याभिषेक के साथ ही चारूमित्रा के पुत्र सुसीम को भी युवराज घोषित कर दिया था। वह सपने देखा करती कि एक दिन सुसीम पाटलिपुत्र का सम्राट बन जाएगा और अग्रमहिषी होकर तब वह धर्मा को फिर से नाइन बना देंगी।
इधर महारानी धर्मा यह हकीकत जानती थी कि साम्राज्ञी का पद तो उसने अपने रूप और ग्रहों के बल पर पा ही लिया किंतु उसे अब अपने पुत्र अशोक और तिष्य का भविष्य सुरक्षित करना है। जैसा कि महाराज बिंदुसार उसे कहा करते थे- एक चषक मदिरा, मोर की कढ़ी और इस नीलाक्षी की कृपा दृष्टि। बाकी फिर वो जाने और मगध का साम्राज्य जाने!
वास्तव में सारा साम्राज्य मुट्ठी में होने पर भी ‘शुभद्रांगी’ धर्मा अंत:पुर में अलग-थलग थी। उसकी दो ही विश्वसनीय दासियाँ थी। कुणिका और और दाखी माँ। अंत:पुर में होने वाले आए दिन के षडयंत्रों से उसका जी बहुत घबराता था और वह चिंतित रहती कि कहीं उसके बच्चे इन षडयंत्रों में न पिस जाएँ। कहीं फिर कभी सड़क पर न आना पड़े। यह सोचकर वह अशोक को प्रातः जल्दी जगाती। नींद के लिए नन्हा अशोक कुनमुनाता। धर्मा को दया भी आती किन्तु बालक को बाल्यावस्था से ही नियमों में बांध कर रखना भी ज़रूरी था। सपने सच करने के लिए आवश्यक था कि हकीकत में जागा जाए। सभी राजकुमारों की तरह अशोक की भी शिक्षा-दीक्षा राजसी ढंग से चल रही थी, किंतु महारानी धर्मा देखती थी कि महाराज बिंदुसार जितना युवराज सुसीम को चाहते हैं उतना अशोक और तिष्य को नहीं। तब उसने अशोक को व्यक्तिगत रूप से भी शिक्षा देकर संस्कारित करना शुरू कर दिया। अशोक के मन में यह भाव भी उत्पन्न किया कि बेशक वो राजकुमार है लेकिन राजपद तक पहुंचने के लिए उसे प्रजा के दिल में जगह बनानी होगी। जिस हिरण्यक पर बाद में युवराज सुसीम की हत्या का दोष आया, उसी हिरण्यक की पुत्री कभी आखेट को जाते हुए अशोक के घोड़े के टापों तले दब गई। हिरण्यक की सारी शूद्र बस्ती जब राजपरिवार और अशोक को कोस रहे थे, उसी वक्त वहाँ महारानी धर्मा का भेजा हुआ राजवैद्य एवं स्वर्ण मुद्राओं से भरी हुई थैली पहुंच गई। साम्राज्ञी धर्मा अशोक को भी लताड़ती हैं और समझाती हैं कि राजा बनना इतना आसान नहीं है। प्रजा के कष्टों को समझना परम आवश्यक है। महाराज बिंदुसार यूँ तो ‘शुभद्रांगी’ धर्मा की हर बात मानते थे, किंतु अशोक को अवंतिका का उपराजा बनाने पर वह हमेशा आना-कानी कर जाते। लेकिन आखिर में जब युवराज सुसीम की नियुक्ति तक्षशिला के उपराजा के पद पर हो गई तो धर्मा ने अपने रूप और कटाक्ष का उपयोग कर आखिरकार अशोक को भी अवंतिका का उपराजा बनवा ही लिया। अवंतिका और पाटलिपुत्र में काफी दूरी होने के कारण धर्मा की नज़रों से अब अशोक काफी दूर हो गया था। किंतु उपराजा बनना उसका लक्ष्य नहीं था। यह तो केवल इसलिए कि उसके शरीर और उसके हथियारों को जंग न लगे। राजकाज चलाना सीखकर वह प्रजा का विश्वास जीत ले और फिर उसके सम्राट बनने की राह निष्कंटक हो।
अवंतिका पहुंचकर अशोक महात्मा बुद्ध की वंशज शाक्य राजकुमारी ‘देवी’ नामक युवती से प्रेम विवाह कर लेते हैं। अशोक की माँ धर्मा को यह विवाह उचित न लगा। किंतु फिर भी उन्होंने स्वीकृति दे दी। अब धर्मा ने अशोक पर गुप्तचर नियुक्त कर दिए, जो उसकी हर ख़बर धर्मा तक पहुंचाते। वह पत्रों द्वारा अशोक को निर्देशित करती और संस्कारित करती रहती। इस तरह पाटलिपुत्र से अवंतीपुर बहुत दूर होने के बावजूद भी धर्मा की नज़रों से कभी अशोक दूर न हुआ। इधर चारूमित्रा भ्रम में है कि अब सुसीम उपराजा तो बन ही गया है। अब जल्द ही वह पाटलिपुत्र का सिंहासन संभालेंगे और वह फिर से धर्मा को नाइन बना देगी। किंतु सुसीम को वहाँ का महामात्य सर्वार्थसिद्धि अपनी बेटी दिव्या के रूप सौंदर्य के जाल में बांध देता है। सुसीम भोग-विलास में डूब जाता है। तक्षशिला का संपूर्ण राजपाट सर्वार्थसिद्धि के अनुसार चलने लगता है। सर्वार्थसिद्धि जनता के हर व्यक्ति से कर लिया करता था। घूस लिया करता था। उसके अत्याचारों से त्रस्त जनता ने आखिर हिरण्यक के नेतृत्व में सुसीम के खिलाफ विद्रोह कर दिया। सुसीम में इतनी शक्ति न थी कि वह अकेले प्रजा के विद्रोह को दबा सके। वह अशोक को बुलावा भेजते हैं। अग्रज की रक्षा करने हेतु अशोक तुरंत सेना लेकर अवंतिका से तक्षशिला पहुंचते हैं। किंतु विरोधी भी आखिर प्रजा का ही अंग थे। उन्होंने ग़लत विद्रोह नहीं किया था। वह राजा से संवाद कायम कर अपने हक की बात ऱखना चाहती थी। सर्वार्थसिद्धि की पोल खोलना चाहती थी। अशोक ने सारी बातों का पता कर विद्रोही नेता हिरण्यक से बातचीत की और रक्त की एक बूंद भी बहाए बिना विद्रोह को शांत कर दिया। अशोक अवंतीपुर लौट आए पत्नी देवी और बच्चे महेंद्र और संघमित्रा के पास। अशोक एक सुखद गृहस्थ जीवन जी रहे थे कि तक्षशिला में पुनः विद्रोह हो गया। एक बार फिर अशोक को आना पड़ा। अशोक के आगे फिर विद्रोहियों ने हार मानी और सुसीम की रक्षा हुई। इस तरह दो बार सुसीम के खिलाफ विद्रोह को शांत करने में अशोक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस बात को बिंदुसार भी समझ गए थे कि अनुज होने के बावजूद भी अशोक में सुसीम से ज्यादा योग्यता है। कहाँ से भाई-भाई में इतना अंतर आया? तभी न, जब धर्मा ने अशोक को समझाया था कि- ‘हर युग में, इतिहास के हर दौर में जनसाधारण को नेतृत्व के लिए एक आभा युक्त प्रेरणा पुरुष की आवश्यकता होती है। जो न्याय और नैतिकता पर आधारित स्वस्थ जीवन जीने का अवसर प्रदान करे।
जो भ्रष्ट गतिविधियों से परे हो और जनकर से प्राप्त धन को न तो हड़पे और न स्वयं के उपभोग में दुरूपयोग करे। राष्ट्र की उन्नति एवं गौरव की वृद्धि में अहर्निश लगा रहे। शासक वंश से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति से प्रजाजन इसकी अपेक्षा रखते हैं। प्रजाजनों की अपेक्षा की कसौटी पर खरे उतरे शासक ही इतिहास में महानता प्राप्त कर युग पुरुष कहलाते हैं’। (पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी) और इन्हीं बातों को आत्मसात करके अशोक कहलाया- देवानाँप्रिय प्रियदर्शी अशोक।
सम्राट बिंदुसार की मृत्यु के बाद भी चार वर्ष पाटलिपुत्र का सिंहासन खाली रहा। अशौच और सूतक के बहाने यह समय धर्मा और अशोक ने प्रजा का दिल जीतने में लगाया। उस समय का प्रजातंत्र बहुत ताकतवर और संगठित था। उत्तराधिकारी के तौर पर यदि किसी को राजा बना भी दिया जाता है तो भी उसे सुयोग्य उत्तराधिकारी साबित होने के लिए बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ता था। सुसीम, अट्ठानबे अन्य राजकुमार भाईयों और चारूमित्रा की हत्या का आरोप अशोक और धर्मा पर था। चार वर्ष का समय लिया धर्मा ने खून के धब्बे धुलने में। और तब अशोक का राज्याभिषेक हुआ पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर। युवराज्ञी देवी ने राज्याभिषेक में शामिल होने से इंकार कर दिया। तब महारानी धर्मा ने अशोक को एक अन्य राजकुमारी कौरवाकी के साथ परिणय सूत्र में बांध दिया और सम्राट बनने पर अशोक को उपाधि दी गई ‘देवांनाप्रिय प्रियदर्शी अशोक’। इन्हीं सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का संपूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार के अधिकांश भूभाग पर था। कलिंग विजय के पश्चात वह चक्रवर्ती सम्राट अशोक कहलाए। समस्त सम्राटों का सम्राट होने का यह गौरव भारत में केवल अशोक को मिला है।
जैसा कि लेखक शरद पगारे कहते हैं-
‘बालक के व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण में माँ का योगदान सर्वाधिक एवं सर्वश्रेष्ठ होता है। विश्व इतिहास के पहले महान सम्राट अशोक इसके अपवाद नहीं थे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व और चरित्र की विशेषताएँ अपनी माँ धर्मा से ही प्राप्त की होंगी। उनके निर्माण के पृष्ठभूमि में रहकर महारानी धर्मा ने जो महान योगदान दिया, उसके बारे में इतिहास मौन है’।
इस चुप्पी को तोड़ते हुए आइये इस वर्ष ‘मदर्स डे’ पर महान भारत के अशोक महान की माँ, पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी महारानी धर्मा का जयघोष करें।
(संपूर्ण लेख उपन्यास ‘पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी’ और लेखक शरद पगारे जी से मेरी बातचीत पर आधारित।)
– प्रतिभा नैथानी