उभरते-स्वर
अल्हड़ नदी
जो केवल याद में जीवित रहेगी,
वो लड़की एक बीती-सी सदी है।
कोई गर पूछ लेगा नाम मेरा,
तो कह देना की अल्हड़-सी नदी है।
जो शैलों से निकलकर चली आगे,
फँसी पाषाण में उलझी लड़ी थी।
था पथ दुर्गम थे पग-पग शूल बिखरे,
मगर सागर मिलन ठाने एड़ी थी।
मधुर संगीत नूपुर-सी झनक ध्वनि,
पवन का वेग साँसों में भरा था।
भरी संवेदना करुणा भरी थी,
हृदय मानो कोई सोना खरा था।
मगर अब मौन है संवाद उसका,
ध्वनि झंकृत नहीं कुछ बोलती है।
थमा कलकल हृदय संगीत सारा,
ये चुप्पी भेद सारे खोलती है।
नही पाषाण शैलों से डरी जो,
वो अपनों के ही आगे हारती है।
भुला संघर्ष पथ का, घोर तप निज,
वो अपना जल सभी पर वारती है।
कहीं धूमिल हुआ अस्तित्व उसका,
कहाँ खोजेगा उनको कौन? और क्यों?
भुला दी जायेगी बेशक वो इक दिन,
भुला दी जाती है बीती सदी ज्यों।
जो केवल याद में जीवित रहेगी,
वो लड़की एक बीती-सी सदी है।
कोई गर पूछ लेगा नाम मेरा,
तो कह देना की अल्हड़-सी नदी है।।
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किरण हो तुम
शान्त मादक पवन हो तुम,
शुद्धता का हवन हो तुम।
हार ले तम रात का जो,
वह तरुण वह किरण हो तुम।।
प्रात की आभा सदृश तुम,
नवल नूतन तान कोई।
शान्त गिरी तप भूमि पर हो,
मौन साधे ध्यान कोई।
तुम जटाधारी तुम्हीं,
नर रूप में खुद को शिवम्।
रूप मृत्युंजय धरे,
धरणी पे हो तमहर स्वयम्।
बालपन का हठ तुम्ही हो,
युवा मन का लगन हो तुम।
हार ले तम रात का जो
वह तरुण वह किरण हो तुम।।
शिखर उन्नत का तुम्हीं,
इस धरा के सुत हो निराले।
तुम विजय का घोष,
तुम संघर्ष रण में हो सम्हाले।
तुम जयी निर्भीक योद्धा,
नित नए संकल्प लेते।
हो प्रवर्तक युग के तुम,
नव सोच की पतवार खेते।
ख़ुद की ही संकल्पना में,
भूल कर जग मग्न हो तुम।
हार ले तम रात का जो,
वह तरुण वह किरन हो तुम।।
धैर्य की मूरत तुम्हीं,
हो कभी चंचल से नयन दो।
भोर की लाली सदृश तुम,
अरुण आभा के चयन हो।
कर्ण की शक्ति श्रवण तुम,
नेत्र दृष्टि भी तुम्हीं हो।
गगन, धरती, क्षितिज हो तुम,
सारी सृष्टि भी तुम्हीं हो।
क्रांति की ज्वाला नवल तुम,
चेतना की अगन हो तुम।
हार ले तम रात का जो,
वह तरुण वह किरण हो तुम।।
– शाम्भवी मिश्रा