जो दिल कहे
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या स्वछंदता
आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई,
हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई! – भारतेंदु हरिशचंद्र
किसी भी राष्ट्र की सभ्यता को नष्ट करना हो तो उसकी संस्कृति नष्ट कर दीजिए। आरंभिक आक्रमणकारियों ने भारत की संस्कृति को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की संस्कृति लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज़ आये। उन्होंने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं और संस्कृति की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। यहॉं तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरुप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेज़ियत को ढोते खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा।
बहुत से लोगों का मानना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, वर्तमान शताब्दी की आवश्यकताओं में से है और जिस समाज में अभिव्यक्ति और संचार माध्यमों की स्वतंत्रता न हो वह तानाशाही समाज होता है। यह बात स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ, अपमान, उपहास और अराजकता नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ सदैव अपने तार्किक व यथार्थवाद व्यवहार से हटकर सामने आता है।
सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। एक अंग्रेजी विद्यालय के शिक्षक ने राम और सीता का वर्णन इस तरह से किया- Sita was sweet-heart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का कहना कि मैंने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है।
राष्ट्रों और उनकी संस्कृति व सभ्यता का अनादर, घृणा व जातिवाद का प्रचार, उन कार्यवाहियों में है, जो पश्चिमी संचार माध्यमों की ओर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खुलकर की जा रही हैं और विश्व, थोड़े-थोड़े समय पर इस प्रकार की अनैतिक व घृणित कार्यवाही का साक्षी रहा है। इस आधार पर पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इस प्रकार के प्रोपेगैंडे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बजाए अधिकतर घृणा के प्रचार और स्वतंत्रता के अपमान से समन्वित हैं। अपमानजनक और इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का औचित्य पेश नहीं किया जा सकता और इस प्रकार के लोग खुलकर घृणा को हवा दे रहे हैं। यह सब कार्य वर्तमान संचार माध्यमों की अद्वितीय शक्ति, कला की सहायता और समन्वय से संभव हुआ है। यह संचार माध्यम ही हैं जो बुराई को बहुत सुन्दर रूप में पेश करते हैं और अपराध को न्याय बताते हैं।
कला और संचार माध्यमों के क्षेत्र में दो विशेषताएँ कष्टदायक बन गयी हैं, एक झूठ है और दूसरा अन्याय व भेदभाव। आज के संचार माध्यमों में जिसके बहुत अधिक समर्थक हैं, वह यह है कि छोटी-सी बात को बहुत बड़े झूठ के साथ मिलाकर लोगों के सामने पेश करो। भेदभाव और दोहरी नीतियाँ वह दो विशेषताएँ हैं, जिसने संचार माध्यमों के न्याय को बहुत अधिक हानि पहुंचाई है। जिस काल में लोगों के मार्गदर्शन और उनको भलाई और न्याय की ओर निमंत्रण देने के लिए ईश्वरीय दूत न हों तो कलाकारों और संचार माध्यमों के स्वामियों को न्याय और भलाई का संदेशवाहक होना चाहिए, इस शर्त के साथ कि झूठ, भेदभाव और बुराई से बचें।
इन सारे झूठ, भेदभाव और अन्याय के बावजूद विश्व में जो कुछ हो रहा है ,क्या उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम दिया जा सकता है और क्या संचार माध्यमों की शब्दावली में मानवाधिकार को एक भूला बिसरा सिद्धांत न कहा जाए?
मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ज़रूरी माना गया है। इस तरह के अधिकार को लोकतंत्र की जीवंतता के लिए ज़रूरी माना गया हैं, क्योंकि लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का होना आवश्यक हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आवश्यक माना तो गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिये कि हम अनियंत्रित या अमर्यादित होकर मनमाना व्यवहार करने लगे। हमें यह समझना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक सीमा होती हैं, इसका उपयोग करते समय एक लक्ष्मण-रेखा का निर्धारण स्वयं कर लेना चाहिए। स्वतंत्रता के आधार पर किसी धर्म, समाज, व्यक्ति या संगठन का निरादर करना या धर्म और ईश्वर की आड़ लेकर आतंक फैलाना, हत्याएं करना कहीं से भी जायज़ नहीं हैं।
आज न सिर्फ भारत में, बल्कि पूरे विश्व में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की ढाल रखकर अप्रिय स्थितियां पैदा की जा रही हैं। सोशल मीडिया के आने के बाद से तो इसके दुरूपयोग की बाढ़ सी आ गई हैं, अभिव्यक्ति की आज़ादी की आड़ लेकर कभी दूसरे धर्मों और उनकी संस्कृति का अपमान किया जाता हैं, मज़ाक उड़ाया जाता हैं। कभी चित्रों के माध्यम से, तो कभी आपत्तिजनक भाषा एवं बयानों से देश के माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की जाती हैं। हर इंसान अपनी बुद्धि का अपने हिसाब से उपयोग करते हुए इसकी सीमा तय करता हैं, परन्तु इसकी अधिकता कभी-कभी नुक़सानदेह साबित होती हैं।
“जब देश को खतरा हो गद्दारों से, तो गद्दारों को देश से मिटाना जरूरी है….
जब गुमराह हो रहा हो युवा देश का, तो उसे सही राह दिखाना जरूरी है……… ”
ऐसे लोग बोलेंगे, तो क्या बोलेंगे? वे एक तरफ मनुष्यों को अमानुषिक बनाने वाली व्यवस्था की आलोचना करेंगे, तो दूसरी तरफ अमानुषिक बना दिये गये लोगों को याद दिलायेंगे कि तुम्हें तुम्हारी मनुष्यता से वंचित कर दिया गया है, या पूर्ण मनुष्य बनने से रोक दिया गया है, इसलिए इस व्यवस्था को बनाये रखने के बजाय इसे बदलो। इस दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाओ।
मेरे विचार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है स्वयं अपनी मनुष्यता को बचाते और बढ़ाते हुए दूसरों को मनुष्य बनाना। यह एक आदर्श है, किंतु असंभव आदर्श नहीं। हर बुराई या खराबी के लिए समाज या सरकार को जिम्मेदार ठहराने की जगह कुछ बुराइयों और खराबियों के लिए खुद को भी जिम्मेदार मानना होगा।
इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है ऐसी बात बोलना, जिससे बोलने वाले की मनुष्यता व्यक्त होती हो और उसके साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को पाने की संभावना पैदा होती हो। स्वतंत्रता का अधिकार लोकतंत्र की वृद्धि करने वाला एक महत्वपूर्ण अधिकार हैं, लेकिन ज़रूरत इस बात की हैं क़ि इस अधिकार के साथ जुड़ी नैतिक एवं सामाजिक ज़िम्मेदारी को हम समझे और उसका निर्वाह पूरी शिद्दत से करें। हमारी अभिव्यक्तियां निरंकुश या अमर्यादित न हो, बल्कि ये ‘जनाभिव्यक्तियाँ’ हों।
– नीरज कृष्ण