आलेख
अभिमन्यु अनत के साहित्य में भारतीय संस्कृति का चित्रण
– डाॅ. मुकेश कुमार
“माॅरीशस के हिन्दी साहित्य सम्राट, प्रवासी हिन्दी साहित्य के अग्रणी हस्ताक्षर डाॅ. अभिमन्यु अनत का जन्म 9 अगस्त, 1937 को माॅरीशस के उत्तर प्रांत में स्थित त्रियोले गाँव में एक निर्धन परिवार में हुआ था। एक अति सामान्य पृष्ठभूमि से ऊपर उठकर अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक क्षितिज पर अपनी अनन्य पहचान बनाने वाले अभिमन्यु अनत का नाम हिन्दी शिक्षण के साथ भी उतनी ही घनिष्ठता के साथ जुड़ा रहा जितना कि लेखन-कर्म के साथ। उन्होंने महात्मा गांधी संस्थान, माॅरीशस में 18 वर्षों तक हिन्दी का अध्यापन किया और 3 वर्ष तक वे माॅरीशस सरकार, युवा मंत्रालय के नाट्यकला विभाग में नाट्य प्रशिक्षक रहे।”
कमल किशोर गोयनका जी लिखते हैं- “अभिमन्यु अनत माॅरीशस के हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक सम्पूर्ण युग हैं। वह एक नए युग का शुभारंभ भी करते हैं और नए युग को विभिन्न दिशाओं में विकासमान बनाते हुए माॅरीशस से बाहर अपने देश के हिन्दी साहित्य को प्रतिष्ठित, प्रचारित और सम्मानित कराता हैं। यह माॅरीशस के हिन्दी साहित्य का अभिमन्यु अनत युग है। इसी प्रकार अभिमन्यु अनत माॅरीशस के प्रेमचन्द हैं।”
संस्कृति में उन साधनों को सम्मानित किया जाता है, जो प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभावों को नियंत्रित करते हैं। इन साधनों को सुविधा की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं- पहला वस्तुओं का वर्ग, दूसरा प्रविधियों का वर्ग और तीसरा विश्वासों तथा मूल्यों का वर्ग। प्रविधियों के वर्ग में उन उपायों को रखते हैं, जिनके द्वारा हम विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं, जैसे- लिखना, बोलना, सामाजिक जीवन में आदान-प्रदान आदि। विश्वासों और मूल्यों का सम्बन्ध व्यक्ति की मान्यताओं से है और इनका प्रभाव आध्यात्मिक एवं नैतिक सौंदर्य में दिखाई देता है।”1
अभिमन्यु अनत ने अपने कथा-साहित्य में यह दिखाया है कि इन अप्रवासी भारतीयों ने स्वयं मर-मर कर भी अपनी संस्कृति के आदर्शों को जीवित रखा। उनके उपन्यासों के पात्रों की धार्मिक एवं नैतिक मान्यताएँ भारतीय हैं। सारा वातावरण भारतीय लगता है- “काली माई का चौतरा, हनुमान की पूजा, रामायण पाठ, धूमकेतु, होली, टोना-टोटका, भूत-प्रेतों की कथा, भजन, कीर्तन और मुर्दों को जलाए जाने के संकेत माॅरीशस के लोक जीवन में पाए जाने वाले तत्व, भारतीय लोक विश्वास और आस्थाओं के चिह्न हैं, जो वहाँ सदियों के बाद आज भी ज्यों के त्यों सुरक्षित हैं।”2
माॅरीशस के विवाह संस्कार में जन्म कुण्डली, ग्रह नक्षत्र आदि पर भी विश्वास किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यदि स्त्री और पुरुष की कुण्डली मेल खाए तो वह दामाता जीवन सुखी और सद्भावपूर्ण व्यतीत होता है और यदि ऐसा न हो तो दोनों में अनबन रहती है- ‘अपनी-अपनी सीना’ उपन्यास का नायक आलोक जब अपनी पत्नी को पीटता है तो वह पंडित के कहे शब्दों के बारे में सोचता है- “पंडितवा ने ठीक कहा था कि औरत मर्द के नछतर जब ठीक नहीं बैठते तो ऐसा ही होता है।”3
माॅरीशस की सांस्कृतिक चेतना में महावीर हनुमान की पूजा के अनेक संदर्भ मिलते हैं। ‘लाल पसीना’ की रेखा, ‘अपनी-अपनी सीमा’ उपन्यास की ‘सानी और पसीना’ ‘शब्द भंग’ में ‘रोबीन की पत्नी’, ‘पसीना बहता रहा’ उपन्यास में हरि की माँ हनुमान की पूजा करती दिखाई देती हैं- ‘लाल पसीना का नायक’ किसन अपने स्थान से उठा। आँगन के उसने देखा को हनुमान जी के चबूतरे के पास अर्घ्य देते पाया।”4
भारतीय संस्कृति में गंगाजल का सर्वोच्च स्थान है। जीवन से मृत्यु तक होने वाले हर अनुष्ठान में इसी के संस्पर्श से पावनता और निर्मलता का प्रादुर्भाव होता है। माॅरीशस के भारतीय मूल के लोग वहाँ के परी तालाब के जल को गंगा-सा पवित्र मानकर जीवन के हर सांस्कृतिक क्रिया-कलाप में उसका प्रयोग करते हैं। ‘पुनर्जन्म’ कहानी के शंकर महतो को अपने पहले जन्म की मृत्यु का स्मरण है- “धीरे-धीरे उसकी साँसें बन्द होती गयीं। उसका मुँह खुला रह गया। उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था।……क्या वह मौत थी? इतनी जल्दी बिना पीड़ा। तो फिर अब क्या होने वाला है? मौत के पश्चात् क्या होगा? जान सकूँगा? उसने होठों पर चम्मच का स्पर्श अनुभव किया। परी तालाब का पवित्र जल जो कि भारत के गंगा जल-सा निर्मल था। उसने गले के नीचे कठिनाई से उतारा।”5
रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के आधारभूत ग्रंथ माने जाते हैं। ‘जम गया सूरज’ उपन्यास का लालमन अपने घर की दीवार पर रामायण महाभारत के कुछ चित्रों को देखकर सोचता है- “क्या वे दिन सच्चे थे? क्या सचमुच राम और कृष्ण कभी इस धरती पर थे? तब तो रावण और कंस भी रहे होंगे? सीता का हरण भी हुआ होगा और महाभारत का युद्ध भी। तो फिर दुनिया में नया क्या है?”6 इस प्रकार रामायण माॅरीशस में जाने वाले कुली मजदूरों के लिए प्रेरणा स्त्रोत रही। माॅरीशस के लोग राम राज्य की स्थापना के स्वप्न संजोते रहे हैं और रामायण के पाठ से दैविक एवं भौतिक तापों से मुक्ति की कामना करते थे- “माॅरीशस के लोगों ने अपनी मुक्ति की लड़ाई तुलसी की रामायण को आधार बनाकर लड़ी और विजय की वैजन्ती माला उनके गले में इस कृति के प्रसाद स्वरूप पड़ी।”7
माॅरीशस में अप्रवासी भारतीय अनेक अन्धविश्वास में ग्रस्त हैं। ये अन्धविश्वास उनके अज्ञान का कारण है और उसकी प्रगति, विकास और उन्नति में जबरदस्त बाधक हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि वे चाहकर भी इनका परित्याग नहीं कर पा रहे और लकीर के फकीर बने इन पर पूरा विश्वास करते हैं। ‘जम गया सूरज’ उपन्यास में लालमन की माँ इस अन्धविश्वास से ग्रस्त है कि यदि व्यक्ति कोयले से सफेद मिट्टी की दीवारों पर लिखता है तो उसका कर्ज बढ़ता है।”8
हर फरवरी पर्व का माॅरीशस के सांस्कृतिक जीवन में बहुत महत्व है। इस पर्व में सामूहिक गीत गाकर स्त्रियाँ इस गीत के द्वारा इन्द्र देवता को रिझाने का प्रयास करती हैं। ‘एक बीघा प्यार’ उपन्यास में इसी उपलक्ष में पहले पूजा के मन्त्रों का जाप किया जाता है और बाद में स्त्रियाँ हर फरवरी का सामूहिक गान गाती हैं-
इन्द्र देवता पानी दे
पानी के मुहाल बा
धरती मैया प्यासल हबे
मेघ देवता पानी दे
देशवा में संकट वा
परजा गुहार करे दे पानी दे
रमा पानी दे, बादल पानी दे…..इन्द्र देव…..।”9
लोकगीत लोक जीवन की धार्मिक, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होते हैं। माॅरीशस समाज में भोजपुरी के लोकगीतों में होली, कजरी, आल्हा, ठुमरी आदि प्रसिद्ध हैं। भोजपुरी गीतों में मजदूरों की मर्म व्यथा का चित्रण हुआ है। ‘लाल पसीना’ उपन्यास में भारतीयों की व्यथा-कथा विभिन्न गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है-
सुनी के नाम हम मारीच के दीपवा हो…
पहुँचे अरी हम पाने को सोनवा
बदले में मिलेला भाई बांसों की मार हो…
छिलछिल गयली सब मजदूरन की पीठवा…
कोलू के बैल बने इखन पीसन को
छोड़ था देस अपन कुली बनन को।”10
मजदूरों की मर्म-व्यथा के साथ-साथ लोकगीतों के माध्यम से एक नारी की मनोव्यथा का मार्मिक चित्रण हुआ है-
लोखा से भिगी गयले गोरी के चुनरिया
बढ़ी गयी ठण्डवा सरदी के रतिया
गरमी के खातिर चलाके रात भर जँवला
गोरी पिसत रह इले सेयां खातिर सतवा
लोखा के भिगी गयले गोरी के रतिया
सौतन के देसवा के जादू-टोनवा में फँसी में
सैया भूली गयले गोरी की यदवा…गोरी यदवा।”11
माॅरीशस में भारतीय संस्कृति को अपनाते हुए वहाँ के लोग धार्मिक विश्वास भारतीय संस्कृति की शरण को लेकर अपनाते हैं। सप्ताह पहले पांडाल में बैठकर कथा आदि सुनना उनके मन को लुभाता है- “लालमन की माँ सूर्य की पूजा करती है। अरी कथा सुननी है। हम भारतीयों की संस्कृति अतिप्रिय लगती है। भारतीय नारायण कथा सुनने से मन को शांति मिलती है।”12
अभिमन्यु अनत के साहित्य में भारतीय संस्कृति की धारा का अविछिन्न रूप प्रवाहित हुआ है। सामाजिक संस्कार, विवाह, शिवलिंग पूजन, रामायण सुनना, हनुमान पूजन, कर्म फल का महत्व, गंगा का यशोगान, सूर्य उपासना, तुलसी पूजन आदि।
“अभिमन्यु अनत मूलतः कथा शिल्पी हैं किन्तु उन्होंने समकालीन हिन्दी कविता को भी एक नया आयाम दिया है। उनके लेखन में एक नए दौर की शुरुआत है। इस लेखन में माॅरीशस के इतिहास के उन्हीं पन्नों का उत्खनन है, जिन पर भारतीय मज़दूरों का खून छिटका हुआ है और जिन्हें वक्त की आग जला नहीं पायी और जिसकी वजह से आज माॅरीशस एक सुखी सम्पन्न राष्ट्र के रूप में देखा जाता है। अपनी कथा रचनाओं में वे देश और काल की सीमाओं में बंधी मानवीय पीड़ा को साधारणीकृत कर उदात्त भूमि पर प्रतिष्ठित कर सके हैं। वह उनके रचनाकार की ही नहीं, समूचे हिन्दी कथा साहित्य की एक उपलब्धि मानी जाएगी।”13
सन्दर्भ-
1. कमल किशोर गोयनका, प्रवासी जगत, विश्व हिन्दी सम्मेलन विशेषांक, पृष्ठ- 13, 14
2. अभिमन्यु अनत, लाल पसीना, पृष्ठ- 150
3. वही, अपनी-अपनी सीमा, पृष्ठ- 111
4. वही, लाल पसीना, पृष्ठ- 199
5. वही, लाल पसीना, पृष्ठ- 199
6. वही, बीच का आदमी, पृष्ठ- 106
7. वही, संस्कृति अस्मिता की जीवंतता, पृष्ठ- 4
8. वही, जम गया सूरज, पृष्ठ- 16
9. वही, एक बीघा प्यार, पृष्ठ- 47
10. वही, लाल पसीना, पृष्ठ- 117
11. वही, लाल पसीना, पृष्ठ- 137
12. वही, जम गया सूरज, पृष्ठ- 10
13. प्रवासी जगत, हिन्दी विश्व सम्मेलन विशेषांक, प्रथम कवर पेज
– डाॅ. मुकेश कुमार