अब हमें आँखों की भाषा सीखनी होगी!
उन दिनों जब Covid-19 का प्रकोप चीन से प्रारम्भ हो; यूरोपीय देशों में अपना असर दिखा रहा था, हम भारतवासी स्वयं के लिए कुछ हद तक निश्चिन्त थे। हमारा जीवन सामान्य था। देशभर में आवाजाही जारी थी। न जाने कब यह वायरस हवाई रास्ते से हमारे देश आ पहुँचा और अब तक लाखों लोग इसके शिकंजे में फँस चुके हैं। ठीक होने वालों का अनुपात भले ही अधिक है लेकिन मृत्यु के आँकड़े बेहद भयावह हैं। उस पर WHO से मिलने वाली सूचनाएँ हर बार एक नए संशय को जन्म दे रही हैं।
बहरहाल इतना तो तय हो चुका है कि हमें अपनी सुरक्षा के लिए किसी के भरोसे नहीं बैठना है! हमारी सलामती के लिए इस समय मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग ही एकमात्र उपाय है।
कहते हैं ‘आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है’ एक ओर तो कोरोना महामारी ने मौत का तांडव मचा रखा है, वहीं दूसरी ओर इसने सुरक्षा कवच ‘मास्क’ का एक अच्छा-खासा बाज़ार भी खड़ा करवा दिया है। यही नहीं, सैनिटाइज़र और साबुन के विक्रय में भी वृद्धि हुई है। अन्य उत्पादों में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ‘कोरोना फ्री’ लेबल संजीवनी का कार्य कर रहा है तथा इस लेबल के साथ सजी वस्तुएँ हाथों-हाथ बिक रही हैं। महीनों से निराश विक्रेताओं के चेहरों की खोई चमक धीरे-धीरे लौटने लगी है।
मास्क, केवल केमिस्ट के यहाँ ही मिलेगा और एक विशेष प्रकार का ही, ये बीती बात हुई। सच तो यह है कि जैसे होली के समय रंग, पिचकारी या फिर दीवाली पर दीये, रंगोली के ठेलों से सड़कों के किनारे रौनकें सजती हैं, कुछ ऐसा ही नज़ारा इनका भी है। ‘जहाँ जाइएगा, हमें पाइयेगा’ की तर्ज़ पर यह अब ठेलों से लेकर स्टेशनरी तक की दुकानों में उपलब्ध है। यह चप्पल के ठेले और चाय की किटली पर है। कुछेक सब्जी वालों ने भी इसे लटका रखा है। छोटी-मोटी दुकानों पर तो खैर है ही! कहीं प्लास्टिक में पैक है तो कहीं खुला ही लटका हुआ है, जिसे हर आने-जाने वाला पलटकर देख सकता है! कपड़े के बने इस रंगीन मास्क का रेट ऐसा है कि कोई भी खरीद लेगा लेकिन खुला मिलने के कारण यह भी संक्रमित हो सकता है, यह बात ग्राहकों को समझनी होगी।
अप्रैल-मई के मध्य एक ऐसा कठिन समय आया था, जब लगने लगा था कि न जाने अब जीवन कभी पटरियों पर लौटेगा भी या नहीं! फ़िलहाल यह पूर्णतः तो नहीं पर एक सीमा तक लौटता प्रतीत हो रहा है। स्थिति सामान्य न होते हुए भी सामान्य होने का भरम देने लगी है। अब इसे लापरवाही मानिए या अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर अत्यधिक विश्वास कि कुछ लोग बिना मास्क वाले ‘आत्मनिर्भर’ बने घूमते हुए देखे जा सकते हैं। आप इन्हें फाइन की बात कहेंगे तो ये लड़ने को उतारू हो सकते हैं।
सुपर स्टोर चालू हो चुके, अन्य दुकानें भी चलने लगी हैं। जहाँ काउंटर हैं, वहाँ दुकानदारों ने अपनी-अपनी दुकान के आगे टेबल लगाकर सीमा-रेखा खींच दी है। जहाँ नहीं हैं, वहाँ रस्सी बाँधकर सोशल डिस्टेंसिंग बना ली गयी है। सुपर स्टोर में अधिक भीड़ न हो अतः लाइन में लगकर अपनी बारी की प्रतीक्षा धैर्य के साथ की जाती है। रेस्टोरेंट में ‘डाइन इन’ भले ही न्यूनतम हो पर ‘टेक-अवे’ धड़ल्ले से चल रहा है।
भारत में दिसंबर 2020 तक वैक्सीन बनने की पूरी आशा है। उसके बाद सबको उपलब्ध होने की प्रक्रिया भी अपना समय लेगी ही। तब तक मास्क का ही एकमात्र सहारा है। मास्क, कोरोना के साथ-साथ अन्य बीमारियों के कीटाणुओं से हमारी रक्षा करेगा। धूल, प्रदूषण से बचाएगा, फलतः श्वांस सम्बन्धी परेशानियों एवं एलर्जी में थोड़ी राहत मिलेगी। संकटकाल में भी एक सुखद पक्ष यह उभरकर आया है कि अब हम लोग स्वच्छता को लेकर पहले से कहीं अधिक जागरूक एवं सतर्क हो गये हैं। घर के खाने को प्राथमिकता दी जा रही है। इसका हमारे स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
अब यदि आँकड़ों पर दृष्टि डाली जाए तो विश्व भर में कोरोना संक्रमण की संख्या दो करोड़ को पार कर गयी है। लगभग आठ लाख की जीवन डोर टूट चुकी है। हमारे भारत में मृत्यु दर में गिरावट भले ही आयी हो पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनतीस लाख संक्रमित मरीज़ों में से तिरेपन हज़ार की मृत्यु हो चुकी है। पूर्ण लॉकडाउन के हटने के पश्चात् देखने में आया है कि इस महामारी को लेकर लोगों में अब पहले-सा डर नहीं रह गया है। वे पिछले महीनों की अपेक्षा कुछ कम तनाव में हैं। कभी-कभार हँस भी लिया करते हैं। प्रसन्न रहना अच्छा है परन्तु बीमारी के प्रति लापरवाह न रहा जाए!
बिना मास्क पहने लोग भी सडकों पर दिखाई देने लगे हैं। शायद इन्होंने बीमारी की गंभीरता को भुलाकर यह मान लिया है कि जैसे धूप है, सर्दी-गर्मी है, बारिश है…वैसे ही कोरोना भी है। एक तरह से यह दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। लगता है, तमाम मुसीबतों के बीच रहने तथा प्राकृतिक आपदा से जूझने को अभ्यस्त हम भारतीयों ने कोरोना के साथ भी सहज हो जीना सीख लिया है।
याद रहे कि इस लड़ाई में हमारा सुनिश्चित हथियार ‘मास्क’ है, जिसका साथ अभी लम्बा चलेगा। ये तय है। थोड़ी असुविधा होगी। ‘लुक’ ख़राब लगेगा लेकिन ‘जान है तो जहान है’ अपना और अपनों का ख़याल हमें ही तो रखना है। इसके लिए बस, SMS (सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, सैनिटाइज़र) का त्रिदेव मंत्र याद रहे।
यदि सुरक्षित रहना है तो अब हमें आँखों की भाषा सीखनी होगी।
चलते-चलते: लगभग पाँच सदियों की लम्बी प्रतीक्षा के उपरान्त श्रीराम जन्मभूमि में, भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन कार्यक्रम संपन्न हुआ। देशवासियों को इस ऐतिहासिक पल की हार्दिक बधाई! पाँच अगस्त अब स्वर्णिम अक्षरों में इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा चुका है। कर्तव्यपरायणता, तप, त्याग और संकल्प के प्रतीक प्रभु श्री राम सबके हैं, सबके हृदय में निवास करते हैं। हमारे आराध्य हैं, राम! सबकी आस्थाएँ उनसे जुड़ी हुई हैं। लेकिन यह प्रसन्नता तब ही सार्थक होगी जब देशवासी मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों को आत्मसात कर जीवन मूल्यों से तनिक भी विचलित न हों! रामराज्य की संकल्पना का आधार यही है और इसका साकार होना भी तभी सम्भव है।
प्रश्न उठता है कि क्या हम ईर्ष्या, वैमनस्यता, आरोप-प्रत्यारोप, स्वार्थ, भेदभाव की राजनीति से ऊपर उठ; केवल देशहित का सोच सकेंगे? किसी की बुराइयों को भूल उसकी अच्छाइयों पर ध्यान केन्द्रित कर सकेंगे? क्या दूसरों पर आक्षेप मढ़ने के स्थान पर अपने कार्यों पर अधिक ध्यान दे, उदाहरण प्रस्तुत करने की इच्छा हम सबके मन में बलवती होगी? उत्तर हमारे ही पास है। इस पर मनन-चिंतन का दायित्व भी हमारा ही बनता है।
महामारी की विपदा के साथ ही, इन दिनों देश के कई हिस्से भीषण बाढ़ की चपेट में हैं। जिनके घर बह गए, जो गाँव नष्ट हो चुका, संगी, साथी, परिजन बिछुड़ गये; वहाँ कोरोना हो या कोई अन्य बीमारी; ये सब पीछे छूट जाती हैं। नियम कायदे धरे रह जाते हैं। व्यक्ति जब दुःख में अश्रु बहाता है, अथाह पीड़ा में चीखता-चिल्लता है, घर के साथ जिसका जीवन ही डूब चूका हो उसके लिए मास्क का भला क्या अर्थ रह जाता है! सारी समस्याएँ जस-की-तस हैं। आश्वासन भी हर बार की तरह धनराशि का मुलायम हाथ फेर, चल देता है। बरस-दर-बरस हम इसी दृश्य के साक्षी होते आए हैं। हम कभी किसी व्यक्ति की, तो कभी पूरे शहर की पीठ थपथपा गर्व से कह उठते हैं कि ‘यह शहर कभी रुकता नहीं, हारता नहीं क्योंकि इसकी जिजीविषा अभी शेष है’। बहुधा अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए किसी की ‘विवशता’ को ‘जिजीविषा’ कह; उसके उत्साहवर्धन की भी अपनी एक पुरानी परंपरा रही है। इससे पीड़ित को कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि वह दोषी को इंगित करना ही भूल जाता है। उस पर विडम्बना यह कि जब तक सुरक्षित हैं, हम और आप इस तरह के मसलों में अधिक रुचि नहीं लेते! यह सनसनीखेज ख़बरों का दौर है। ख़बरें जिनमें रस हो, लगाईं-बुझाई की बातें हों या फिर किसी के व्यक्तिगत जीवन का ख़ुलासा हो; वही अधिक बिकती हैं और उन्हें चटकारे लेकर पढ़ा जाता है। दुखद है पर सच यही है!
– प्रीति अज्ञात