मूल्यांकन
अपने समय की नब्ज़ टटोलता संग्रह: कुछ निशान काग़ज़ पर – सोनिया वर्मा
वर्तमान समय बहुत तीव्रता से संवेदनहीनता की ओर अग्रसर होता जा रहा है और ऐसे में युवा कवि के. पी. अनमोल की रचनाओं को पढ़कर बहुत सुकून मिलता है। इन्हें पढ़कर ये विश्वास होता है कि कहीं न कहीं थोड़ी ही सही; संवेदनशीलता बची है युवाओं में और आगे भी क़ायम रहेगी।
कविताएं, ग़ज़लें हों या अन्य कोई भी विधा, सभी संवेदनाओं को व्यक्त करने का माध्यम हैं। यह दो प्रकार की होती हैं- छंद बंद्ध और छंद मुक्त। ग़ज़ल भी बहर, रदीफ़ और क़ाफ़िया की जुगलबंदी पर ही कही जाती है।
के. पी. अनमोल का नवीनतम ग़ज़ल संग्रह ‘कुछ निशान कागज पर’ को पढ़कर यह एहसास होता है कि अनमोल ग़ज़ल का मात्र लेखन ही नहीं करते बल्कि उसे अक्षरशः जीते हैं। ऐसा शायर जो अपने समय की नब्ज़ को पकड़ने में क़ामयाब हो, उसे आसमान छूने से कौन रोक सकता है!
भूतकाल की अपेक्षा वर्तमान को देखा जाए तो मालूम होता है कि मात्र लोगों के पहनावे, तौर-तरीकों और रहन-सहन में बहुत, पर सोच-समझ में थोड़ा बहुत ही बदलाव आया है। अमीर और अमीर हुए, ग़रीब और ग़रीब। लड़कियाँ जैसे पहले असुरक्षित थीं, आज भी वही हालात हैं और हम इसे ही सुधार और तरक्क़ी मान लें तो यह बहुत दु:खद है और हम सभी यह मान रहे हैं कि बहुत सुधार हुआ, तरक्की हुई। तभी अनमोल कहते हैं कि हमें ऐसे तीव्र सुधार, तरक्क़ी पर रोना था पर हम सब ख़ुश होते हैं, यह मानकर कि प्रगति हो रही है-
सदियाँ गुज़रीं लेकिन हासिल कुछ भी नहीं
हमको ऐसे फ़र्राटे पर रोना था
लालच इंसान को इंसान नहीं रहने देता। ये परिस्थितियाँ कहती हैं कि लालच में इंसान वो भी कर गुज़रता है, जो नुकसानदायक होता है और शायर इन सबसे बा-ख़ूबी वाक़िफ़ है, तभी तो वास्तविकता से अवगत करवाते हुए कह रहा है कि ये ज़रूरी नहीं कि जो फ़ैसला हमें भलाई का लगे, वह वास्तव में भलाई का ही हो, कमाई का भी ज़रिया हो सकता है। किसी भी तथ्य के प्रति अनमोल का दृष्टिकोण बहुत ही अलग है। अनमोल यह मानते हैं कि यदि लोगों को दिन भर खपने के बाद दो जून की रोटी न मिले तो चलाये जा रहे अभियान या अन्य समाधान सब निर्रथक ही हैं-
आया है शह्र भर की भलाई का फ़ैसला
लेकिन वो अस्ल में है कमाई का फ़ैसला
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जुगाड़ हो न सके पेट भरने का जिनसे
बताओ ऐसे हलों को भी कैसे हल कहना
नये-नये औज़ारों और मशीनों के होते हुए भी किसानों को बहुत-से काम ख़ुद ही करने होते हैं। तेज़ धूप हो या बारिश, किसान हमें खेतों में ही दिखते हैं और तनिक भी रंज और ग़म या माथे पर शिकन नहीं होती। ख़ुशी-ख़ुशी अपना काम करते हैं। शेर में ‘इतराते’ शब्द का प्रयोग एक अलग ही प्रभाव छोड़ता है। देखिये-
इतराते हैं ख़ुद पर मेहनत और पसीना भी
खेतों वाले लौट के जब भी घर को आते हैं
एक शायर/लेखक की कहन सार्थक होती है, जब पढ़ने वाला भी उस सोच तक पहुँचे, जिस आधार पर लेखन हुआ है। अनमोल के शेरों को समझने के लिए किसी भी डिक्शनरी या अन्य माध्यम की आवश्यकता नहीं होती, इतनी सरल कहन है कि पाठक स्वतः ही समझ लेता है।
प्रतीकात्मक रूप से भावों को व्यक्त करना उम्दा कहन होती है और पाठक स्वविवेक के अनुसार इसका अर्थ समझ सकता है। प्रथम शेर कुछ ऐसा ही है। इसमें एक तरफ जहाँ आप माली की चिंता का अनुमान लगा सकते हैं, वहीं दूसरा अर्थ एक पिता की चिंता भी समझ सकते हैं। वहीँ अगले शेर में महिलाओं, बच्चियों के साथ होते अत्याचार, शोषण से चिंतित दिख रहे हैं।
चाहे वह एक आम महिला हो या विशेष, दर्द साफ़ महसूस हो रहा है। एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना दूभर करने वाले लड़कों को किस भय के साथ लड़की चाँटा लगाती है, इसमें भय के साथ उसकी हिम्मत भी क़ाबिले-तारीफ़ है-
बाग़बां सोच में डूबा है बड़ी मुद्दत से
कैसे फूलों की नज़ाकत को बचाया जाए
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कोठियों में बैठ, चर्चा करके औरत पर
सोच भी पाये कि उसने क्या सहा होगा!
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चार फ़िकरे, एक लड़की, डर भी था पर क्यों सुने
मनचले के गाल पर चाँटा करारा ख़ूब था
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था मात्र डिग्री देने का काम ही कर रही है। समझ से दूर क्या, क्यूँ और कैसे अब बच्चें नहीं सोचते, मात्र रटते हैं और मार्कशीट हासिल करना ही अपना लक्ष्य रखते हैं। 2-4 ℅ छात्र ही तथ्य को समझते हैं। ऐसे में पढ़ाई बच्चों को निराशाजनक लगती है। पढ़ाई में बच्चों का रूझान भी कम हो रहा है और जो पढ़ रहे हैं, वो भी मात्र डिग्री के लिए। ऐसे में ऐसा शेर होना शायर का भविष्य के प्रति चिंतित होना दिखाता है, जो स्वाभाविक है-
डिग्रियाँ देकर कहा, अब ख़ुद बनाओ रोज़गार
और हुनर की क़द़्र भी तुमने न जानी, सो अलग
इन शेरों को पढ़कर यह साफ़-साफ़ झलकता है कि शायर प्रकृति प्रेमी तो है ही, उसे प्रकृति की कितनी चिंता है और प्रकृति के प्रति सजग है। अन्य लोगों को जागरूक करना अपनी ज़िम्मेदारी समझ रहा है और समस्या की ओर ध्यानाकर्षण के साथ-साथ उसके समाधान का निदान भी सुझाने का प्रयास कर रहा है। और कहता है कि यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं पर कंट्रोल रखे तो जीवन का हर लम्हा ख़ुशनुमा गुज़रेगा।
कंट्रोल रखो थोड़ा, तुम अपनी उम्मीदों पर
जीवन का हर इक लम्हा, गर हँसके बिताना है
यदि हम सभी पेड़-पौधों का ध्यान रखते, पेड़ों का बचाव करते तो आज हम मकानों से घिरे नहीं होते और जलवायु भी प्रदुषित नहीं होती। शुद्ध हवा का अभाव और खनिजों का दोहन हमें परेशान नहीं करता।
कभी परवाह की होती ज़रा-सी भी दरख़्तों की
तो हम कंक्रीट के जंगल तले बिलकुल नहीं होते
तरक्की के रास्तों पर चलते-चलते न जाने कितने वृक्षों को हमने काट दिया। शायर की कोमल भावना देखिये- उस पेड़ के कटते वक़्त उस पर रहने वाले, घोंसला बनाने वाले पक्षी रोने लगते हैं, पर मनुष्य निर्दयतापूर्वक पेड़ को काट देता है-
सहन , नीड़, पक्षी सभी थे रुआँसे
उधर उनकी ज़िद थी शजर काटना था
भेदभाव जात-पात के नाम पर हो रहे दंगें तथा आतंकवादी घटनाओं से परेशान मन ये सहसा कह उठता है कि ऐ लोगो! प्रेम-मुहब्बत से रहो, ऐसा कुछ न कहो और करो की नफ़रत अपना सर उठाने लगे। साथ ही अपनी आँखों पर लगे जाति-धर्म के चश्मे उतारो तो आपको सभी अपने समान इंसान ही नज़र आएंगे और देश भी सुरक्षित रहेगा-
कौन ये कह गया है तुमसे कहो ऐ लोगो!
नफ़रतें इस तरह उगलो कि वतन जल जाए
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जिसने भी धर्म का आँखों से उतारा चश्मा
उसको हर शख़्स में इंसान नज़र आता है
सभी श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम की श्रेणी में शामिल होने की रेस में लगे हुए हैं, वहीं इतने अच्छे-अच्छे शेर कहने वाले अनमोल ख़ुद को इन सब से दूर रखते हुए कहते हैं कि कहा तो बहुत कुछ है मैंने पर अभी वो एक शेर कहना शेष है, जो किसी शायर को अनमोल या यूँ कहें की अमर कर दे, उस शायर की पहचान बन जाये। यह सादगी ही अनमोल को सबसे अलग सिद्ध करती है-
सुख़न को जो मेरे अनमोल कर दे
वही इक शेर अब तक अनकहा है
शायर का कहन ही शायर को आगे और पहचान देता है, अनमोल भी कुछ ऐसा ही कह रहे हैं कि हमने जो कुछ भी लिखा है, हमारे बाद हमारी याद का सबब होगा यह-
क़लम से छोड़ दिए कुछ निशान काग़ज़ पर
करेगा याद हमें अब जहान काग़ज़ पर
कम समय में अच्छा करने की कोशिश सभी करते हैं पर अनमोल ने श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम की ओर जाने की ठानी और अपनी मेहनत, अपनी क़ाबिलियत के दम पर उस रास्ते पर बहुत आगे तक आ गये हैं। अपनी इक अलग पहचान क़ायम कर ली है इन्होंने।
यह संग्रह नये सीखने वालों के लिए बहुत उपयोगी है, बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलेगा इस पुस्तक से। इसमें एक ग़ज़ल ऐसी है, जो यह दर्शाती है कि अनमोल बहुत क्रिएटिव हैं। नये-नये प्रयोग करने से भी डरते नहीं-
अकड़ ज़रा-सी भी दरिया अगर दिखाएगा
मुझे यक़ीन है वो प्यासा लौट जाएगा
मुझे यक़ीन है वो प्यासा लौट जाएगा
वो अपनी प्यास को ऐसे नहीं बुझाएगा
वो अपनी प्यास को ऐसे नहीं बुझाएगा
तमाम पानी को प्यासा ही छोड़ जाएगा
अनमोल ने इतने कम समय में उम्दा कहन के साथ ही ग़ज़ल में बहुत कुछ नये प्रयोग भी किये हैं।
‘कुछ निशान काग़ज़ पर’ पढ़कर हम यह कह सकते हैं कि यह पुस्तक बहुत अच्छी है। नये सीखने वालों के लिए मार्ग-दर्शक का काम करेगी। इस पुस्तक के लिए अनमोल को बहुत बहुत शुभकामनाएँ। ऐसी ही उम्दा कहन की ग़ज़लें लिखते रहिए और ख़ूब नाम कमाइए।
काग़ज़ पर जो कुछ निशां, छोड़ रहे बे-मोल।
दुनिया में तुमको सदा, कर दें ये अनमोल।।
समीक्ष्य पुस्तक- कुछ निशान काग़ज़ पर
रचनाकार- के. पी. अनमोल
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राज.)
संस्करण- प्रथम (जनवरी 2018)
पृष्ठ- 128
मूल्य- 195/- पेपरबैक तथा 395 हार्डबाउंड
यह किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है-
– सोनिया वर्मा