आलेख
अपनी ही धुन का अलमस्त शायर: हस्तीमल हस्ती
– के. पी. अनमोल
ऊँचाइयों पर पहुँचने की चाहत उड़ान के दरमियान ज़्यादा होती है। अमूमन ऊँचाई पर पहुँच कर एक ख़ालीपन-सा हाथ में रह जाता है, जो बहुत कचोटता है। वहाँ से नीचे देखने पर ढेर सारे लोग होते हैं जो आपसे नीचे, कहीं पीछे रह गये होते हैं लेकिन साथ ही पीछे रह गया होता है साथ, जिसके बग़ैर जीना आसान नहीं होता। बुलन्दी पर ऐसा कोई नहीं होता जो आपका ग़म बाँट सके, आपके साथ रो सके, ठहाका लगा सके, डाँट सके। तब उस ऊँचाई पर बैठकर अपने बौनेपन का एह्सास होता है, जिस ऊँचाई को पाने के लिए हम न जाने कितनों को कुचल कर आगे बढ़े होते हैं।
इस फ़लसफ़े का एह्सास अगर सफ़र के शुरुआती दौर में हो जाए तो इससे बेह्तर मौला की रहनुमाई और कुछ नहीं हो सकती। उड़ान ऐसी हो, जिसमें किसी से आगे निकलने की न होड़ हो, न जल्दबाज़ी। कितना अच्छा हो कि हम अपनी धुन में अलमस्त होकर उड़ते रहें और सफ़र का मज़ा लेते रहें।
हस्तीमल हस्ती जी में मुझे एक ऐसे ही अलमस्त की झलक मिलती है, जो ज़माने भर की चकाचौंध से बा-ख़बर होने के बावजूद भी अपनी धुन में मगन, अपने काम में रमा दिखता है। शायद उन्होंने दुनिया और उसकी असलियत को बहुत जल्दी समझ लिया और उसके बाद ख़ुद को उससे थोड़ा-सा अलग करके रख लिया ताकि वे अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़, अपने तरीक़े से जी सकें और अपने आपको बचाये रख सकें।
सब कुछ होने के बावजूद हर चीज़ को धत्ता दिखाकर अपनी ही मौज में चल देना; आपको दीवानों की फ़ेहरिस्त में शुमार कर देता है लेकिन यह दीवानगी अचानक हासिल होने वाली चीज़ नहीं; बल्कि इसके लिए एक उम्र खपानी पड़ती है, तपाना होता है ख़ुद को। भरपूर तपस्या के बाद होने वाले हासिल को एक ओर सरका कर दूसरी तरफ़ चल देने में क्या मज़ा होता है; यह सिर्फ दीवाने ही जानते हैं। हस्तीमल हस्ती जी इस मज़े से ख़ूब वाक़िफ़ लगते हैं तभी कुछ इस अंदाज़ के अशआर कहते हैं-
कभी यूँ भी हुआ है हँसते-हँसते तोड़ दी हमने
हमें मालूम है जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें
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तुम बुलन्दी कहते हो जिसको मियाँ
ऊबकर हम छोड़ आये हैं उसे
इनकी ग़ज़लगोई में ज़िन्दगी का भरपूर तज़्रिबा मिलता है। बल्कि इन्हें पढ़ते हुए अनायास ही इन्हें ‘तज़्रिबे का शायर’ कहने का मन होता है। दर्शन इनके अशआर में शिद्दत से अपनी उपस्थिति दर्शाता है। ऐसा दर्शन, जो थोथा नहीं, भोगे हुए यथार्थ से उपजा 24 कैरेट खरे अनुभव का निचोड़। जीवन के हर पड़ाव के लिए गहरे अनुभव से भरे अशआर इनकी ग़ज़लों में मिलते हैं। कहना न होगा कि हस्ती जी ने जीवन को अपने दम पर ख़ूब जिया है।
जब तक हरा-भरा हूँ उसी रोज़ तक हैं बस
सारे दुआ-सलाम ये मालूम है मुझे
मतलबी दुनिया की इससे बेह्तर समझ क्या होगी भला और क्या ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में उन्होंने इस गहरी बात को शे’र में ढाला है। एक इंसान की पूछ-परख तभी तक होती है जब तक उससे कोई न कोई साध पूरी होती हो। इसी तरह के अनुभव के कुछ शे’र गौरतलब हैं-
इस दुनियादारी का कितना भारी मोल चुकाते हैं
जब तक घर भरता है अपना, हम ख़ाली हो जाते हैं
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झूठ की शाख़ फल-फूल देती नहीं
सोचना चाहिए, सोचता कौन है
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बरसों रुत के मिज़ाज सहता है
पेड़ यूँ ही बड़ा नहीं होता
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ख़ूबियाँ पीतल में भी ले आती है कारीगरी
जौहरी की आँख से हर एक गहना देखना
हस्तीमल हस्ती जी की शायरी में बहुत कुछ अलग है, जो इन्हें तमाम दूसरे शायरों से अलग खड़ा करता है। गहरी बात को सीधे-सादे तरीक़े से आसानी से कह देना, आसपास की हर छोटी-बड़ी चीज़ पर नज़र रख; उसे मिसाल के बतौर इस्तेमाल करना, आसान-सी लेकिन वजनदार कहन, सरल शब्दावली आदि कई ऐसी ख़ूबियाँ हैं, जो इन्हें आज के ग़ज़ल-परिदृश्य में एक अहम् मुकाम दिलाती हैं।
इनकी कहन और भाषा जितनी सरल हैं, भाव उतने ही दमदार। बहुत सरल शैली में आसानी से गहरी बातें कैसे अशआर में ढालनी हैं, यह हस्ती जी बा-ख़ूबी जानते हैं। महानगरीय चकाचौंध के बीच क़ामयाब जमात में बैठने के बावजूद भी वे स्वयं इतने ही सरल बने रहे; जितनी इनकी शायरी, यह बात हैरान करती है। सरल भाषा, शैली के साथ-साथ सुगढ़ शिल्प और प्रबल भाव पक्ष इनके ग़ज़ल-लेखन को और धारदार बनाते हैं। अपनी ही मस्ती में शायरी करते हुए हस्ती जी कई बार कबीर, नज़ीर, निदा जैसे अल्मस्तों के आसपास पहुँचते दिखते हैं। अपनी इस बात की पुष्टि के लिए कुछ अशआर रख रहा हूँ-
कतना, बुनना, रँगना, सिलना, फटना फिर कतना-बुनना
जीवन का ये चक्र पुराना पहले भी था, आज भी है
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अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में
दीवारें ज़िन्दा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं
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गुल हो, समर हो, शाख़ हो किस पर नहीं गया
ख़ुशबू पे लेकिन एक भी पत्थर नहीं गया
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दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिन अक्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें
हस्तीमल हस्ती जी की शायरी की एक और महत्वपूर्ण ख़ासियत है- अपने समय की मौजूदगी। अपने समय की शायरी होने की वजह से इनकी ग़ज़लों से गुज़रते हुए बासीपन का एह्सास नहीं होता। इनके लेखन के तत्व अपने परिवेश में आसपास ही बिखरे हुए मिलते हैं, चाहे वह कथ्य हो या प्रतीक अथवा बिम्ब। मौजूदा समय के सरोकार भी इनके अशआर में बहुतायत से मिलते हैं। देखें-
अब है फ़िजूल वक़्त कहाँ आदमी के पास
दर और कोई ढूँढिए जज़्बात के लिए
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कुछ नए सपने दिखाए जाएँगे
झुनझुने फिर से थमाए जाएँगे
आग की दरकार है फिर से उन्हें
फिर हमारे घर जलाए जाएँगे
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सबका यही ख़याल कभी था पर अब नहीं
इंसान इक मिसाल कभी था पर अब नहीं
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हमेशा रोना रोती है कमी का
करें तो क्या करें इस ज़िन्दगी का
ये गीता उनकी है, बाइबिल तुम्हारी
किया बँटवारा किसने रोशनी का
ज़रूरत आयी तो गीता भी लिक्खी
भले था काम अपना सारथी का
हस्तीमल हस्ती वर्तमान ग़ज़ल का एक अनिवार्य नाम है। इनकी चर्चा के बिना समकालीन ग़ज़ल का परिदृश्य अधूरा-सा मालूम होता है। इनकी कलम ने अब तक कई यादगार ग़ज़लें और अशआर दिए हैं, चलते-चलते इनमें से कुछ को क्यों न दोहरा लिया जाए-
किस जगह रास्ता नहीं होता
सिर्फ हमको पता नहीं होता
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काँच के टुकड़ों को महताब बताने वाले
हमको आते नहीं आदाब ज़माने वाले
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ज़िन्दगानी इस तरह है आजकल तेरे बग़ैर
फ़ासले से कोई मेला जैसे तनहा देखना
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जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है
– के. पी. अनमोल