बाल-कविता
अपना बचपन याद आ गया
अल्हड़ मस्ती उन्माद छा गया,
अपना बचपन याद आ गया।
वही सरसों की पीली क्यारी
टेढ़ी मेड़ें, टूटी आड़ी
चौपालों पर हँसी-ठहाका
खेले बच्चे गुल्ली-डंडा
पीपल बरगद ताल आ गया,
अपना बचपन याद आ गया।
वही औरतों का जमघट-पनघट
शिकवा शिकायत प्यार-मोहब्बत
चैती, कजरी, झूमर, सोहर
होली, ईद, दीवाली के संग
हँसी-छेड़ दुलार आ गया,
अपना बचपन याद आ गया।
वही चौधराईन की इक बगिया
जिसमें मिलते सामा चकिया
चोरी छिपे अमराई में
मिलकर खाते फल सब सखिया
ईमली अँवरा स्वाद आ गया,
अपना बचपन याद आ गया।
वही काका की टूटी खटिया
हुक्का-चिलम, थारी, लुटिया
किस्से, कहानी, सलाह, मशविरा
हिंदू, मुस्लिम भाई की एकता
रिश्तों की मुस्कान आ गया
अपना बचपन याद आ गया।
जी करता फिर दोहराऊँ मैं
आजादी के दिन वो सुन्दर
सुख दुख के जो पल हैं गुजरे
उनके लिखूँ मैं गीत मनोरम
जगी चेतना, विचार आ गया,
अपना बचपन याद आ गया।।
****************************
कहाँ गये
कहाँ गये दादी के नुस्खे,
कहाँ गई नानी की कहानी।
उड़ते परिंदे कटी-पतंगे,
बातें जिसकी थी सुहानी।।
कहाँ गया भंवरों का गुनगुन,
गोऱी के पायल की रूनझुन।
पेड़ों पर सावन के झूले,
पींगे मार आकाश को छू ले।
कहाँ गए वो खेल-खिलौने,
बाइस्कोप, जादू के डिब्बे।
कठपुतली, नाटक के हिस्से,
पंचतंत्र के नैतिक किस्से।
कहाँ गए तेनाली, बीरबल,
कहाँ गया बुद्धि और चिंतन।
कहाँ है विक्रम, मुल्ला, शेख,
हाजिर जवाबी का नहीं था मेल।
कहाँ गए वो खेत-खलिहान,
होली-ईद, पूए-पकवान।
गीली मिट्टी सोंधी खुशबू,
पहली बारिश भूला सुध-बुध।
अब न कहीं वो डेंगा-पानी,
गोपीचंदर, मछली रानी।
विष अमृत, कित-कित का शोर,
कंचे, लेमनचूस पर जोर।
अब न कहीं वो ताल-तलैया,
ना पनघट, ना है बगिया।
छूट गया बचपन का गाँव,
संबंधों के टूटे नाव।।
– डॉ. आरती कुमारी