जो दिल कहे
अपना-अपना वतन
भारत की उम्र 72 वर्ष हो गयी। गणतंत्र दिवस धूमधाम से मनाया जा रहा है। भारतीय मीडिया 15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 2019 के बीच के प्रमुख घटनाक्रम और विकास का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर रही है तो देश के बुद्धिजीवी विशेषकर अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री आजादी की प्रगति-गाथा के समाजार्थिक गौरव से अवगत करा रहे हैं। बावजूद इसके कि देश के अनेक प्रान्त आज भी अलगाववादियों और नक्सलियों के चपेट में हैं और कश्मीर एक बार फिर से हिंसा के गिरफ्त में है, देश में गणतंत्र दिवस का माहौल भी उफान पर है, जो बताता है कि सुख-दुख को समान भाव से जीने वाला यह महान भारतवर्ष अपनी गौरवमयी परंपराओं में भी जीते हुए, उससे ऊर्जा ग्रहण करता रहा है।
हम अपने युवा वर्ग को विरासत में जो भारत सौंपने वाले हैं उसकी छवि निराशाजनक है। सन् 1947 में भारत और भारतवासी विदेशी दासता से मुक्त हो गये। भारत के संविधान के अनुसार हम भारतवासी संप्रभुता सम्पन्न गणराज्य के स्वतन्त्र नागरिक है। परन्तु विचारणीय यह है कि जिन कारणो ने हमें लगभग 1 हजार वर्षो तक गुलाम बनाये रखा था। क्या वे कारण खत्म हो गये है? जिन संकल्पों को लेकर हमने 90 वर्षो तक अनवरत् संघर्ष किया था क्या उन संकल्पो को हमने पूरा किया है? आज हमारे भीतर देश-भक्ति का अभाव है। हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन को जिस भाषा द्वारा देश मुक्त किया गया, उस भाषा हिन्दी को प्रयोग में लाते हुए शर्म का अनुभव होता है। भारत गूँगा है जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं है, विचारणीय है कि वाणी के क्षेत्र में आत्महत्या करने के उपरान्त हमारी अस्मिता कितने समय तक सुरक्षित रह सकेंगी।
राजनीति के नाम पर नित्य नए विभाजनों की माँग करते रहते है। कभी हमें धर्म के नाम पर सुरक्षित स्थान चाहिए तो कभी अल्पसंख्यकों/दलितों के वोट लेने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान की माँग करते हैं। एक वह युग था जब सन् 1905 में बंगाल के विभाजन होने पर पूरा देश उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ था। परन्तु आज इस प्रकार की घटनाएं हमारे मर्म का स्पर्श नहीं करती हैं। सन् 1947 में देश के विभाजन से सम्भवतः विभाजन-प्रक्रिया द्वारा हम राजनीतिक सौदेबाजी करना सीख गए हैं।
आपातकाल के उपरान्त एक विदेशी राजनयिक ने कहा था कि भारत को गुलाम बनाना बहुत आसान है, क्योंकि यहाँ देशभक्तो की प्रतिशत बहुत कम है। हमारे युवा वर्ग को चाहिए कि वे संगठित होकर देश-निर्माण एंव भारतीय सामाजिक विकास की योजनाओं पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करें। उन्हे समझ लेना चाहिए- हमें आगें आना होगा और ये सोच को छोडना होगा कि इतना बडा भारत- “हमसे क्या होगा”। याद रखें एक व्यक्ति भारत को बदल सकता है आवश्यकता तो सकारात्मक सोच की है। नारेबाजी और भाषणबाजी द्वारा न चरित्र निर्माण होता है और न राष्ट्रीयता की रक्षा होती है। नित्य नई माँगो के लिए किये जाने वाले आन्दोलन न तो महापुरुषों का निर्माण करते हैं और न स्वाभिमान को बद्धमूल करते हैं। आँखे खोलकर अपने देश की स्थिति-परिस्थिति का अध्ययन करें और दिमाग खोलकर भविष्य-निर्माण पर विचार करें।
क्या आजादी का संघर्ष इसीलिए किया गया था? युवाओं ने इसीलिए बलिदान दिया था कि अंग्रेजों के स्थान पर कुछ ‘स्वदेशी’ लोग सत्ता का उपयोग करें। सत्ता का हस्तानांतरण हुआ है, लेकिन उसके आचरण में बदलाव नहीं आया है।
देश में बढ़ते एकाधिकारवादी आचरण ने सत्ता को इतना भ्रष्ट और निरंकुश कर दिया है कि उसकी चपेट में आकर सारा अवाम कराह रहा है। महात्मा गांधी का मानना था कि गांवों का विकास ही उत्थान का प्रतीक होगा। गांवों में जीवन मूल्य के बारे में अभी भी संवेदनशीलता है। हमने पंचायती राज व्यवस्था को तो अपनाया है, लेकिन गांवों को उजड़ते जाने से नहीं रोक पा रहे हैं। कृषि प्रधान देश में खेती करना सबसे हीन समझा जाने लगा है। किसानों को आज अपने ही शासकों से अपने पैदावार की उचित मूल्य प्राप्ति के लिए सडकों पर उतरना पड़ता है या फिर बढ़ते कर्ज के कारण जुट के बने रस्से से बने फंदों में अपनी जीवन-लीला को समाप्त करने के लिए विवश होना पड़ता है। शिक्षा के लिए अनेक आधुनिक ज्ञान वाले संस्थान जरूर स्थापित हो गए हैं, लेकिन वहां से ‘शिक्षित’ होकर निकलने वालों की पहचान किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचा वेतन पाने के आधार पर हो रही है। स्वदेशी, स्वाभिमान और स्वावलंबन की भावना तिरोहित होती जा रही है। कर्ज जिसे आजकल ‘एड’ का नाम दे दिया गया है, एकमेव साधन बनकर रह गया है, जिसने हमें फिर गुलामी की तरफ धकेल दिया है। राजनीतिक आजादी तो मिली, लेकिन आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास न होने के कारण हम आर्थिक रूप से गुलाम होते जा रहे हैं, जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में हुआ था। तब भी शासक तो स्वदेशी ही थे, लेकिन उनको चलना ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुसार पड़ता था। आज हम भी अपने आर्थिक क्षेत्र को विश्व बैंक या विश्व मुद्रा कोष के पास गिरवी रख चुके हैं।
सम्प्रदायवाद धार्मिक भ्रष्टाचार की कोख से ही उत्पन्न भस्मासुर है। सत्ता के अपहरण में संप्रदायवाद के घिनौने प्रयासों को लोगों ने पिछले दशकों में बहुत करीब से देखा-समझा है। इसी साम्प्रदायिक उन्माद से आतंकवाद की तरफ भी एक रास्ता जाता है, जिसकी ओर असंख्य बेरोजगार नौजवान या नाना प्रकार के भ्रष्टाचार से संत्रस्त युवक जाने-अनजाने चले जाते हैं। संप्रदायवाद आतंकवाद से भी खतरनाक जहर है, क्योंकि वह अदृश्य रूप में मनुष्य की चेतना को विषाक्त कर उसका अपने हित में इस्तेमाल करता है। साम्प्रदायिक उन्माद में लोकतंत्र की व्यवस्था धरी रह जाती है और संगठित संप्रदायवाद अपना नृशंस खेल खेलने लग जाता है। गरीब-अशिक्षित जनता संप्रदायवाद की एक बड़ी ताकत है, जिसके इस्तेमाल से वह लोकतंत्र में सत्ता और पूरी व्यवस्था को कुछ मुट्ठियों में कैद रखना चाहता है।
आज देश-दुनिया जिन भीषण संकटपूर्ण हालातों से गुजर रही है, कदाचित भारत के लिए यह स्थिति मध्यकाल जैसी है, जब देशी-विदेशी आक्रांताओं से जनता चतुर्दिक दमन का शिकार हो रही थी और उसके आर्तनाद को सुनने वाला कोई नहीं था। ऐसे में उसने अपने को ईश्वर के हवाले कर रखा था जनता के उस दर्द -कराह को तात्कालीन भक्ति साहित्य में देखा जा सकता है। आज भी जनता चतुर्दिक दमन और शोषण का शिकार हो रही है।
अगर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ा जाये, तो पता चल जायेगा कि 1947 में जिन आदर्शो और मूल्यों के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाया था, आज वे मूल्य पूर्णतया तिरोहित हो चुके हैं। गुजरते वक्त के साथ आजादी की बात भी पुरानी हो चली है। आज न तो पुराने तेवर बचे हैं, न पुराने भाव। हम केवल तिरंगा फहरा और देश भक्ति के कुछ गीत बजाकर अपनी जिम्मेवारी पूरी समझ लेते हैं। अत: साथियों, लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम सभी को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा, तभी हमारा लोकतंत्र स्थायी व मजबूत रह सकेगा।
कहने को हम लोकतंत्र व्यवस्था में हैं, पर सभी जानते हैं कि साम्राज्यशाहियों ने ‘तंत्र’ के द्धारा ‘लोक’ को अपने कब्जे में कर रखा है, इसलिए आज राजनेताओं में जनता की विश्वसनीयता नहीं रह गई है। ऐसे में रचनाकारों के लिए यह अनेको चुनौतियों से भरा-निर्मम काल है, जिसे वे अपनी रचनाओं से पूरी संवेदनशीलता से चित्रित कर आम जनता की चेतना को जाग्रत कर सकते हैं। आखिर संकटकाल का संघर्ष-साहित्य ही भविष्य में प्रेरणा का साहित्य बनता है। सत्ता के आकर्षण और अनेक प्रकार के मोह-प्रलोभन से मुक्त रहकर ही साहित्यकार अपने समय के नग्न यथार्थ के चित्रण द्वारा जन-चेतना को झकझोर सकता है और यही संकटकाल में उसका मुखर दायित्व भी है।
– नीरज कृष्ण