आलेख
अन्तराष्ट्रीय योग दिवस: भारत की वैश्विक विजय
तुम रजनी के चाँद बनोगे या दिन के मार्तण्ड प्रखर
एक बात है मुझे पूछनी, फूल बनोगे या पत्थर
तेल फुलेल क्रीम कंघी से नकली रूप बनाओगे
या असली सौंदर्य लहू का आनन पर चमकाओगे
पुष्ट देह, बलवान भुजाएं, रूखा चेहरा, लाल मगर
यह लोगे या लोगे पिचके गाल, सँवारी मांग सुघर
जीवन का वन नहीं सजा जाता कागज़ के फूलों से
अच्छा है दो पात जो जीवित बलवान बबूलों से।
– रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (शक्ति और सौंदर्य)
ये पंक्तियाँ प्राकृतिक जीवन शैली और इसकी परिणति के रूप में सुन्दर स्वस्थ शरीर के महत्व को बताती है साथ ही कृत्रिम जीवन को अस्वीकार करने को प्रेरित भी करती हैं।
शरीर की प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक शक्ति को प्रबल बनाने के लिए सूर्य की प्रथम रोशनी का स्नान ज़रूरी है। सूर्य नमस्कार पृथ्वी पर ऊर्जा के स्त्रोत अर्थात जीवन शक्ति के प्रति हमारी कृतज्ञता है जिसका किसी धर्म विशेष से कोई सरोकार नहीं है। दरअसल सूर्य नमस्कार योगासन नहीं है। जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए आसनों या ध्यान के लिए वक़्त नहीं निकाल पाते या किसी निर्बलता, विकार के कारण कठिन योग साधना नहीं कर पाते उनके लिए सूर्य नमस्कार की पद्धति है। इसकी बारह अवस्थाएं है जो करने में आसान भी हैं और मन और तन स्वस्थ, शांत और प्रसन्न कर सहजता से मानसिक और शारीरिक सबलता देती है। इसे करने के दौरान जपे जाने वाले मन्त्र से विरोध भी बेजा ही है।प्रथम अवस्था में ॐ मित्राय नमः, दूसरी में ॐ रवये नमः, तीसरी में ॐ सूर्याय नमः, चौथी में ॐ मानव नमः, पांचवी में ॐ खगाय नमः, छठी में ॐ पुष्णे नमः, सातवीं में ॐ हिरण्य गर्भाय नमः, आठवीं में ॐ मरीचये नमः , नौवीं में ॐ आदिव्याय नमः , दसवीं में ॐ सुविये नमः, ग्यारहवीं में ॐ अर्काय नमः और अंतिम बारहवीं अवस्था में ॐ भाष्कराय नमः मन्त्रों के जाप में असीम ऊर्जा के प्रतीक सूर्य के प्रति कृतज्ञता है जो इस धरती पर जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी को व्यक्त करना चाहिए। मूक पशु पक्षी अपनी भाषा में रम्भाकर, चहचहा कर, पेड़-पौधे फूलों को खिला कर झूम कर इस ऊर्जा के प्रति कृतज्ञ हो उठते हैं …सूर्य उगते ही कमलिनी अपने दल खोल देती है …कमल खिल उठते हैं फिर हम मानव जिन्हे बोधगम्य वाक्शक्ति की अनमोल नेमत मिली है वे सूर्य नमस्कार और जाप से गुरेज़ क्यों और कैसे कर सकते हैं!
आज आधुनिक शैली ने शहरों में महंगे जिमखाने की स्थापना कर दी है इसमें कोई विरोध नहीं पर योगासन एक ऐसा व्यायाम है जिसे किसी भी आयु वर्ग के लोग बिना किसी उपकरण के साफ़ ताज़ी हवा वाले किसी भी स्थान में कर सकते हैं चाहे वह घर का कोना हो, बाहर मैदान या उद्यान …‘.हल्दी लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आये’ की कहावत सही मायनों में योगासन सत्य कर देता है। सच है ‘ एक तंदरुस्ती हज़ार नियामत’ के मह्त्व को जो लोग योग से जोड़ कर देखते हैं वे प्रसन्न चित्त और स्वस्थ तन के साथ सकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसा नहीं कि वे बीमार नहीं पड़ते या समस्याओं से परेशान नहीं होते पर वे जल्द ही मानसिक और शारीरिक स्वास्थय लाभ लेने में सक्षम हो जाते हैं। वर्त्तमान युग में पश्चिम देशों के देशों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है की जीवन शक्ति को असाधारण रूप से विकसित करने में योगासन और साथ ही प्राणायाम जैसी श्वसन क्रिया एक उत्तम विधि है।
अगर हम धर्म को आडम्बर तथा खोखले रस्म रिवाज़ में नहीं बांधते और सही अर्थों में धार्मिक हैं तो योग की आध्यात्मिकता से इंकार नहीं कर सकते क्योंकि योग शब्द का अर्थ ही है ‘जोड़ने वाला’। यह संस्कृत भाषा के ‘युज‘ धातु से बना है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ना योग है। योग के आठ अंगों में से किसी के भी मह्त्व से सिर्फ इसलिए इंकार कभी नहीं किया जा सकता कि यह धर्म से जुड़ा है। प्रथम अंग ‘यम ‘पांच नियम …अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से जुड़ा है जो नैतिक जीवन के लिए सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य होने ही चाहियें। दूसरा अंग नियम है जिसके अंतर्गत …शौच, संतोष, तप ,स्वाध्याय , ईश्वर – प्राणिधान की बात है इसकी उपयोगिता और अपरिहार्यता से कौन इंकार कर सकता है। तीसरा अंग आसन से जुड़ा है…जो शरीर को लचीला, सुन्दर स्वस्थ और सुगठित बनाने में मदद करते हैं। चौथा अंग प्राणायाम है जिसका शाब्दिक अर्थ है ’जीवनी शक्ति का नियंत्रण‘ श्वासः ही जीवन शक्ति है और श्वास लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को ही प्राणायाम कहते हैं। पांचवा अंग प्रत्याहार है अर्थात अपनी इन्द्रियों को बाह्य विषयों से मुक्त कर अंतर्मुखी कर देना। यह जीवन के भाग दौड़ उहापोह से शान्ति की ओर ले जाने के लिए अत्यंत ज़रूरी है। छठा अंग धारणा है …निर्मल मन को अपने इष्ट या आराध्य में रमा देना ही धारणा है। यह चित्त के केन्द्रीयकरण एकाग्रता के लिए ज़रूरी है और इसका किसी धर्म विशेष से कोई लेना देना नहीं क्योंकि आराध्य किसी भी सम्प्रदाय के लोग की स्वेच्छा पर निर्भर है। यह ब्रह्माण्ड की रहस्यमयी शक्ति और स्वस्तित्व के आभास का एहसास है। सातवां अंग ध्यान है जिससे मन के सत्व गुणों को प्रबल और राजस और तामस वृत्तियों को दूर करने का प्रयास किया जाता है। अंतिम और आठवां अंग समाधि है सांसारिक क्रियाकलापों को निभाते हुए भी उसकी असारता का बोध हमें समाधिस्थ रखता है। हम धरती पर कुछ वर्षों के लिए किसी महान प्रयोजन के लिए हैं उस प्रयोजन के पूरा होने के बाद किसी अनदेखी दुनिया में जाना हर जीवन की नियति है इसे समझना ज़रूरी है। धारणा, ध्यान और समाधि ही जीवन में संयम लाते हैं।
पशु भी उठते ही अपने शरीर को खिंचाव देते हैं; बिल्ली सोकर उठते ही चारों पैर पर खड़ी होकर बीच का पेट उठकर अपने पीछे की और खींचती है। दो चार सेकंड ऐसा करने के बाद अपना काम करने लगती है। कुत्ता पिछले और अगले पांवों के सहारे शरीर को खींचता है।
योग को सही मायनों में जीवन में शामिल किया जाए तो शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य भी बना रहता है क्योंकि इससे सदाचारिता, सच्चरिता, आध्यात्मिकता जैसे गुण सहज ही विकसित हो जाते हैं। अतः योग की शक्ति को भक्ति विशेष से ना जोड़ा जाए। यह धर्म से जुडी पूजा पाठ की रस्म नहीं नहीं बल्कि स्वस्थ तन मन वाले सवा करोड़ भारतीयों के प्रिय भारत देश की सशक्त पहचान है।
दर्शन और विज्ञान किसी पंथ के नहीं होते हैं। योग परम स्वास्थ्य का विज्ञान है ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के अनुसार शून्य का आविष्कार संभवत: हिंदुओं ने किया। अंक प्रतीक भी यहां पैदा हुए। अरबों ने उनका प्रयोग किया। उन्हें हिंदू अरेबिक कहा जाता है। क्या हिंदुओं द्वारा खोजे जाने के कारण अंक भी सांप्रदायिक हैं? एस एन सेन ने भारतीय गणित का विवेचन किया। लिखा है ‘शब्दांक और दशामिक स्थानगत मूल्य में उनका व्यवहार अपूर्व भारतीय विकास है।’ क्या हिंदुओं का शोध होने के कारण गैर हिंदू दशमलव प्रयोग छोड़ चुके हैं? ‘साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना’ में नीढम ने बीजगणित को भारतीय व चीनी विद्या बताया है? क्या बीजगणित छोड़ी जा सकती है? ऋग्वैदिक ऋषियों ने सूर्य को ऊर्जादायी बताया। नक्षत्रों की गति का अध्ययन किया। क्या प्रकृति विज्ञान से जुड़े निष्कर्षो को उनके ऋषि या हिंदू होने के कारण खारिज कर सकते हैं? गीता दर्शन ग्रंथ है। गीता के अंत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- ‘यह ज्ञान बताया है, विचार करो जो ठीक लगे सो करो।’ लेकिन यहां गीता भी सांप्रदायिक है और योग पर भी विलाप है। मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदांत और योग भारत के 6 प्राचीन दर्शन हैं। बुद्ध और जैन दर्शन भी यहीं उगे थे। लेकिन सांख्य और योग प्राचीन दर्शन हैं। सारी दुनिया के विश्वविद्यालयों में दर्शन के विद्यार्थी ये 8 भारतीय दर्शन पढ़ते हैं। योग दुख दूर करने का विज्ञान है। योग में दर्शन और विज्ञान साथ-साथ हैं। यहां कोई अंधविश्वास नहीं और धार्मिक कर्मकांड भी नहीं। पतंजलि ने योग की परिभाषा की, ‘चित्त वृत्ति की समाप्ति योग है।’ गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया ‘दुख संयोग से वियोग ही योग है।’
योग के अनुसार संकल्प, विकल्प, राग द्वेष और अवसाद विषाद का केंद्र मन है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने ‘मन’ को शरीर का ही सूक्ष्म हिस्सा माना है। वे अनेक रोगों के लिए ‘साइको सूमैटिक’- मनोशरीरी शब्द प्रयोग करते हैं। मन की क्षमता विराट है- कभी यहां, पल भर में वहां। ऋग्वेद से लेकर गीता और पतंजलि तक योग की वैज्ञानिक अविरल धारा है। स्वस्थ शरीर और एकाग्र मन आदिम अभिलाषा है। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूक्त में ‘वन, पर्वत और आकाश में घूमते मन को कल्याण से जोड़ने’ की स्तुति है। उपनिषदें की रचना वेदों के बाद हुई। केनोपनिषद् में ज्ञान स्नोतों को मन के साथ जोड़ने को उच्चतर चित्त अवस्था की प्राप्ति कहा गया है और इसे ही योग। श्वेताश्वतर उपनिषद् में, ‘छाती, गर्दन और सिर को सीधा रखते हुए ज्ञान केंद्रों को मन से जोड़ने और प्राण वायु रोकने/भीतर लेने की योग विधि है।’ यहां योगाभ्यास के लिए सुंदर भूमि का भी उल्लेख है। गीता उपनिषदें के बाद लिखी गई। गीता में योग का विस्तार से वर्णन है। पतंजलि सूत्र और बाद के हैं। भारतीय चिंतन में योग की शुरुआत का श्रेय ‘हिरण्यगर्भ’ को दिया गया है।
चलते-चलते~
21 जून को अंतराष्ट्रीय योग दिवस का नाम दिया गया है। 21 जून ‘समर सोल्स्टिस’ के रूप में जाना जाता है उस दिन उत्तरी गोलार्ध में दिन की अवधि सबसे लम्बी होती है। इस दिन का खगोलीय महत्व है। पर जिस तरह से कुछ लोगों ने इस के आयोजन को लेकर विरोध के बिगुल बजाते हैं वे भूल रहे हैं कि योग जीवन जीने की शक्ति से जुड़ा है यह किसी धर्म विशेष से जुडी कोई भक्ति नहीं है। यह जीवन को समझने और जीने का मर्म है; कोई धर्म नहीं है।
(जुलाई 2015 के ‘राजनीति चाणक्य’ के अंक में प्रकाशित एवं प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा प्रशंसा पत्र प्राप्त आलेख।)
– नीरज कृष्ण