अति सर्वत्र वर्जयेत
आज यूं ही बैठे-बैठे एक विचार आया कि अक़्सर हमारे आसपास धर्म और भ्रष्टाचार की बातें हम सुनते और करते ही रहते हैं पर क्या यह सही है? माना कि धर्म जीवन को सुनियोजित करता है, एक व्यवस्थित मार्गदर्शन देता है पर समस्या ये है कि भांति-भांति के धर्म और धार्मिक परम्पराओं ने इंसानियत को इतना जकड़ा हुआ है कि इंसानियत भूलकर सिर्फ धर्म ही याद रहता है ‘हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,आपस में सब भाई-भाई’ जैसी बातें अब सिर्फ बातें हैं। हर धर्म का व्यक्ति अपने आपमें सबसे अधिक आदर्शवादिता का अभिमान लिए होता है और इसी अभिमान को पुष्ट करने के चक्कर में खुद पर लबादा डाले समाज में रहता है पर इन सब प्रक्रियाओं में, खुद को बेहतर साबित करने की जद्दोजहद में मानवधर्म कब पीछे रह जाता है पता ही नहीं चलता। यहां शुरू होती है धर्मान्धता की अति।
भारतीय परंपरा के अनुसार जिस घर में बच्चा जन्म लेता है, अधिकतर उसे धर्म से जुड़ा कोई मन्त्र या वाक्य उसके कान में सुनाया जाता है यानि जन्म लेते ही बच्चे को बता दिया जाता है कि वो किस धर्म का है। उसके पास कोई विकल्प नहीं होता कि वो अपनी रूचि का धर्म चुने। समझ आने के पहले ही जन्मघुट्टी में इंसानियत की जगह धार्मिक संस्कार पिलाए जाते हैं। माना ये बिलकुल गलत नहीं है पर क्या ये ज्यादा सही नहीं होगा कि संस्कारों को इंसानियत की शिक्षा सबसे पहले दी जाए?
इसके बाद बात भ्रष्टाचार की…बच्चे को बचपन से ही भ्रष्टाचार सिखाने वाले भी माता पिता ही होते हैं क्योंकि कभी जिम्मेदारियों के चलते, कभी समयाभाव में, कभी आर्थिक समस्याओं के कारण, कभी सिर्फ अपने शौक के लिए माता-पिता बच्चों को चॉकलेट, खिलौने और नए कपड़ों की रिश्वत देते हैं। बचपन से ही ये सीख दी जाती है किसी के लिए कुछ करने के बदले कुछ मिलेगा। यही सीख हमारे भविष्य का दर्पण है, ये उस वक़्त समझ ही नहीं पाते।
आज एकल परिवारों में अक़्सर देखा जाता है, बच्चों को हर चीज जरुरत से ज्यादा मिलती है। माता-पिता अपने बच्चों के लिए अपनी अधिकतम व्यय क्षमता का उपयोग करते हैं। कभी सोचते ही नहीं कि ज्यादा लाड़ दुलार की अति का परिणाम क्या होगा!
एक उदाहरण, जैसे बच्चों को पहले खूब चॉकलेट खिलाई जाती है फिर जब दांत सड़ जाते हैं तब उसके दांतों का इलाज कराया जाता है,जाहिर है। इलाज के बाद भी बच्चे को जीवन भर दांतो के कमजोर होने और संक्रमण की समस्याओं से जूझना होगा, बिलकुल वैसे ही चॉकलेट या मनपसंद चीजों के लालच का परिणाम जिंदगी भर संक्रमित दांतो की तरह ही भुगतान होता है।
अब यही बात गरीबी हटाओ के सन्दर्भ में सोची जाए,….गरीब को हम सहायता स्वरुप काम देने से ज्यादा उस पर तरस खाकर, दान देकर या छूट देकर पंगु बनाते हैं। सब नहीं पर अधिकतर लोग इन सुविधाओं का गलत उपयोग करते हैं। जब बिना मेहनत के जरूरतें पूरी होंगी तो काम कौन करना चाहेगा और तब इन रियायतों और सुविधाओं की अति अनेक समस्याओं को जन्म देती है।
हम आमतौर पर एक और समस्या से रुबरु होते हैं। एक तरफ स्त्री को अबला कहकर एक से बढ़कर एक नियम और कानून व्यवस्थाएं बनाई गई हैं, दूसरी तरफ महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा देने की बात। व्यभिचार और अनाचार के फैले हुए वातावरण में कहीं इन कानून व्यवस्थाओं का अधिक लाभ तो नहीं उठाया जा रहा या यूं कहा जाए अति सुरक्षात्मक और सहयोगात्मक रवैये का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा हैं?
कुल मिलाकर मुझे तो यही लगता है कि बच्चे,गरीब या महिलाऐं ही नहीं बल्कि हर बात में हर क्षेत्र में ‘अति’ सुरक्षात्मक, सहयोगात्मक और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार दुरुपयोग को बढ़ावा देता है और यही नैतिकता की पंगुता का जनक भी बनता है। वैसे भी यह बात बिलकुल सच है कि कहावतें और मुहावरे कसौटियों पर कसे जाने के बाद ही बनते हैं। हम सब ने कभी-न- कभी, सुना तो होगा ही ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’।
एक बात कहूं, मानोगे?
सदा रहना सजग सचेत
एक गुरु मन्त्र सीखा मैंने
‘अति सर्वत्र वर्जयेत’
– प्रीति सुराना