अच्छा भी होता है!
जहाँ जीवन की विषमताओं, समाज की कुरीतियों, व्यर्थ के दंगे-फ़साद, न्याय-अन्याय की लड़ाई, अपने-पराये, रिश्ते-नाते, ईर्ष्या, अहंकार और ऐसी ही तमाम विसंगतियों में उलझकर जीना दुरूह होता जा रहा है, वहीं कुछ ऐसे पल, ऐसे लोग अचानक से आकर आपका दामन थाम लेते हैं कि आप अपनी सारी नकारात्मकता त्याग पुन: आशावादी सोच की ओर उन्मुख हो उठते हैं। बस, इसी सोच को सलामी देने के लिए हमारे इस स्तंभ ‘अच्छा’ भी होता है!, की परिकल्पना की गई है, इसमें आप अपने साथ या अपने आस-पास घटित ऐसी घटनाओं को शब्दों में पिरोकर हमारे पाठकों की इस सोच को क़ायम रखने में सहायता कर सकते हैं कि दुनिया में लाख बुराइयाँ सही, पर यहाँ ‘अच्छा’ भी होता है!
– संपादक
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सीएसआर टीम के द्वारा चलाई जा रही मुहिम ‘दाना-पानी’
करुणा परमात्मा की ओर से मिला एक ऐसा अद्भुत उद्गार है जो इंसान को फरिश्ता बना देता है। यूँ तो यह भी कहा जाता है “फरिश्तों से बेहतर है इंसान बनना, मगर इसमें लगती है कुछ देर ज्यादा”
यकीनन अगर हम इसी सूक्ति को लेकर चले तो सही मायनों में आदमी से इंसान बनने का सफर कठिन है। इसमें देर लगती है ,क्योंकि इस राह में जो मील का पत्थर है उनको लांघना मुश्किल है। सत्य ,त्याग, सेवा ,समर्पण ,दया, करुणा और जाने कितने ही ऐसे मील पत्थर हैं जिन्हें तय करना पड़ता है। हर एक उद्गार का, भाव का अपना ही महत्व है पर कभी-कभी किसी एक भाव को अपनाकर बाकी के भाव स्वतः ही आत्मसात हो जाते हैं। हमारे शहर का सबसे अधिक धनाढ्य परिवार; जिसका नाम हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार दुनिया के सबसे अधिक अमीर परिवारों में 95वें नंबर पर आया है, विश्वविख्यात सोनालिका ट्रैक्टर के उद्योग से जुड़े हैं और धन के साथ-साथ जिस एक और चीज से ईश्वर ने उन्हें मालामाल किया है वह है करुणा।
मुझे “हस्ताक्षर” पत्रिका की संस्थापक- संपादक प्रीति अज्ञात जी का फोन आया कि उनकी पत्रिका में एक कॉलम है “अच्छा भी होता है” और उसके लिए उन्होंने मुझे कुछ लिखने को कहा; तो मुझे लगा विश्व में ख्याति प्राप्त भारत के जाने-माने उद्योगपति मित्तल परिवार के द्वारा किए जाने वाले कितने हीं सराहनीय समाजिक कार्यों में से उनके एक प्रोजेक्ट को मैं आप सबके साथ साझा करूँ। इससे पहले कि मैं उस प्रोजेक्ट के बारे में बताऊँ, मैं साधुवाद देना चाहूंगी ‘हस्ताक्षर’ की टीम को जिन्होंने समाज में हो रहे अच्छे कामों को पाठकों के समक्ष लाने का विचार किया।
किन्ही कारणों से, लेखन की दुनिया से मेरा नाता तकरीबन 25 साल पहले छूट गया था। 1988 में मैंने डीडी पंजाबी जालंधर दूरदर्शन में बतौर एनाउंसर और न्यूज़ रीडर ज्वाइन की। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद का साया गहराया हुआ था। 1992 तक अखबारों में भी लिखती रही। उन दिनों में भी मेरी अपने सीनियर से यही बात होती थी कि हत्या, आतंक, चोरी, डकैती, हिंसा, सांप्रदायिक घृणा ऐसी खबरों को मुख्य पृष्ठ पर रखना हो सकता है जरूरी हो, पर ऐसे समय में भी कुछ लोग या कहूं कि ज्यादातर लोग सद्भावना से ओतप्रोत हैं और बहुत कुछ सराहनीय भी कर रहे हैं, उन्हें भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। मुझे लगता है, और आप सब भी मुझसे सहमत होंगे। जिंदगी जीने के लिए उम्मीद बहुत जरूरी है,और जिंदगी जिंदा रहे इसके लिए हमें यह दिखाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए कि यहाँ अच्छा भी होता है!
इस अच्छाई की उम्मीद की शमां रौशन है मेरे शहर होशियारपुर में सोनालिका सीएसआर टीम के द्वारा चलाई जा रही मुहिम “दाना- पानी” के अंतर्गत। अभी हाल ही में मैंने फेसबुक पर एक पत्र मे श्रीमती संगीता मित्तल, श्री अमृत सागर मित्तल और उनके सुपुत्र सुशांत मित्तल का शहर निवासियों की ओर से धन्यवाद किया था, इस मुहिम के 100 दिन पूरे होने पर ।
दाना -पानी मुहिम को शुरू हुए शायद एक हफ्ता हीं हुआ था कि एक दिन बातचीत के दौरान श्रीमती संगीता मित्तल ने कुछ दोस्तों से कहा, जिनमें मैं भी शामिल थी कि उन्होंने बस स्टैंड के पास दाना-पानी प्रोजेक्ट शुरू किया है। किसी दिन हम लोग वहां जाएं और देखें कि सब कैसा चल रहा है। रोज 12:30 से 1:30 बजे तक बस स्टैंड के पास जरूरतमंदों के लिए लंगर लगाया जाता है और साफ-सुथरा भोजन सुव्यवस्थित ढंग से परोसने का प्रयास किया जाता है। मैं एक स्कूल में अध्यापिका हूं ,मेरा जाना तो वहां छुट्टी या इतवार के दिन ही हो सकता था। इत्तेफाक से अगले दिन ही इतवार था। मै 12:30 पर वहां पहुंची। टीम का अभिवादन किया। कुछ देर उनको आव्जर्व किया और जैसे ही मैं उनके इस सेवा कार्य में हाथ बंटाने के लिए आगे बढ़ने लगी कि, किसी ने मेरा दुपट्टा खींच कर मुझे पुकारा। पीछे मुड़कर देखा तो मेरे स्कूल की प्राइमरी की एक छात्रा थी। वह मुझे एक पत्तल पकड़ा रही थी।,बड़े प्यार से उसने मुझे कहा –” मीनाक्षी मैम ,यहां मेरे आगे आ जाओ लाइन में। आपको पता है, यहां बहुत लंबा बढ़िया वाला चावल मिलता है, घी वाली दाल के साथ। ऐसा चावल आपने कभी खाया ना होगा।”
उसके चेहरे पर खुशी और संतोष देखकर मेरी आँख भर आई। सीएसआर की टीम का जो मेंबर वितरण की ड्यूटी देख रहा था उसने मुस्कुराते उस बच्ची से कहा-” पहले आप खा लो बेटा, मैम बाद में खा लेंगी। मैंने देखा वह बच्ची खाना डलवा के वही खाने के बजाय सामने सड़क पर ले कर चली गई। दोस्तों जहां दाना -पानी का लंगर चलता है उसके बिल्कुल सामने हमारे शहर का सबसे पुराना और लोगों का खूब पसंदीदा स्वर्ण थिएटर है। उसके बाहर फुटपाथ से रेहड़ी मार्केट लगती है। मैने देखा, वहाँ एक चादर पर अपनी छोटी सी दुकान लगाए ,गोदी में छोटा बच्चा पकड़े उसकी माँ बैठी थी। उस बच्ची ने वह प्लेट अपनी माँ को दी और दोबारा आकर लाइन में लग गई। वहाँ खाने की कतार में खड़े तकरीबन वही लोग थे जो दाना- पानी की तलाश में सुबह से लेकर शाम तक पसीना बहाते हैं। रिक्शा वाले ,दिहाड़ी मजदूर ,रेहड़ी मार्केट वाले ,बुजुर्ग और कुछ बस स्टैंड पर जाने कहां से आने वाले और जाने कहां जाने वाले मुसाफिर।
अगले इतवार मैं फिर गई। उस दिन एक बुजुर्ग बड़ा सा बैग उठाए बस स्टैंड से आए। खाना लगा देख आयोजकों से रिक्वेस्ट करने लगे– ” पुत्तर, मैं बड़ी दूर से आया हूँ। अंदर बैठ कर खा लूं ? मैंने 2:00 बजे बस पकड़ के अपनी बेटी के ससुराल जाना है।”
बहुत ही भूखे और थके हुए लग रहे थे। टीम इंचार्ज सर ने उन्हें अंदर बैठने दिया। पानी पिलाया और खाना भी परोस कर दिया। बताना मुश्किल है कि वह किस कदर भूख से बेहाल थे। खाना खाते हुए एक अजीब सा संतोष झलक रहा था उनके चेहरे पर। खाना खाकर मेरे पास आए। सिर पर हाथ रखकर बोले —“बेटा मैं बहुत भूखा था, लंगर तो बड़े खाए पर ऐसा साफ सुथरा और सेवा वाला माहौल बहुत कम ही देखा। सदा सुखी रहो।”
उनकी आँखों में आंसू झिलमिला रहे थे। मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि यह सारी दुआएं मित्तल परिवार को लग जाए।
फिर एक दिन गई तो वहाँ किसी चैनल के अधिवक्ता खड़े कुछ लोगों से बात कर रहे थे। खाने की तारीफ कर रहे थे। सब परोसने वालों के धैर्य और सेवा भाव की सराहना कर रहे थे। उस दिन इत्तेफाक से मेरा जन्मदिन था और मैं अपनी बेटी के साथ सीएसआर टीम का मुँह मीठा करवाने गई थी। उन सरदार जी (जिनका नाम मैं अब भूल रही हूँ) ने जैसे ही मुझे देखा तो कहने लगे आइए मैडम जरा आज आसपास के दुकानदारों से पूछते हैं कि वह क्या कहते हैं इस दाना- पानी के लंगर के बारे में।
हर दुकानदार ने यही कहा कि अक्सर जब लोग इस तरह सड़क पर लंगर लगाते हैं तो जूठन ,थर्माकोल की प्लेट्स, ग्लासों का ढेर लग जाता है पर यहाँ 2 महीने से लंगर चल रहा है। 1:30 बजे जब लंगर खत्म हो जाता है तो ऐसे सफाई करके जाते हैं यह लोग कि लगता ही नहीं कि यहां इतने लोग खाना खा कर गए हैं। प्लास्टिक थर्माकोल के प्रयोग को नकारते हुए सोनालिका सीएसआर पत्तलों का इस्तेमाल करते हैं। पानी स्टील के गिलासों में दिया जाता है। बड़े से कूड़ा दान रखे गए हैं, जिन्हें लंगर खत्म होने के बाद वह अपनी गाड़ी में रख कर ले जाते हैं। सही स्थान पर डिस्पोज करने के लिए।
संगीता मित्तल मैम को जब मैंने वह बुजुर्ग की बात बताई तो उन्होंने बड़ा प्यारा जवाब दिया ,”मीनाक्षी तुमने तो वह सुना ही होगा, ‘दाना पानी खींच्च के ले आंदा, कौन किसे दा खान्दा…सो हम खिलाने वाले कौन!’ सब अपनी किस्मत का खाते हैं। हमें तो ईश्वर ने बस निमित्त मात्र बनाया है। अमीरी के साथ फकीरी का उत्तम उदाहरण है अमृत सागर सर और गीता मित्तल मैम। मैं जब भी वहाँ जाती हूँ प्रसाद ग्रहण करके ही आती हूँ। आनंद आता है खाकर। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हर अमीर के दिल में इतनी करुणा जरूर दे कि वह परमात्मा का शुक्र करते हो समाज के उस वर्ग के लिए कुछ करने को प्रयासरत रहे जिनके पास जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने का साधन नहीं है। मजा तो तब है जब ईश्वर आपको अपरंपार बख्से तो आप भी लोभ,मद और अहंकार से बचकर जरूरतमंदों के लिए कुछ करें।
दो लाइनें एक कविता की कह के मैं अपनी बात समाप्त करूंगी=
तपस्या के सहारे इंद्र बनना तो सरल है
स्वर्ग का ऐश्वर्य पा कर मद भुलाना है कठिन।
– मीनाक्षी मैनन