आलेख
अंग्रेजी मानसिकता से मुक्त हों: आचार्य बलवन्त
मनुष्य अपने विचारों की अभिव्यक्ति किसी न किसी भाषा के माध्यम से ही करता है। भाषा के अभाव में किसी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती। साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान और इतिहास का आधार भाषा ही है। भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम ही नहीं, वह नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की संवाहिका भी होती है। प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति होती है। उसके शब्द परिवेश की आशाओं, आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं से संपृक्त होते हैं। भाषा की प्रकृति को पहचान कर ही उसके प्रवाह को अक्षुण्ण रखा जा सकता है।
लार्ड मैकाले भाषा की प्रकृति एवं व्यक्तित्व निर्माण में उसकी भूमिका को भली-भाँति समझता था। इस तथ्य की पुष्टि 2 फरवरी सन् 1835 ई. को ब्रिटिश संसद में दिए गए उसके व्याख्यान से हो जाती है, जिसमें उसने कहा था- “मैंने भारत के ओर-छोर का भ्रमण किया है और मैंने एक भी आदमी नहीं पाया, जो चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धि, ऐसे सक्षम व्यक्ति तथा ऐसी प्रतिभा देखी है कि मैं नहीं समझता कि इस देश को विजित कर लेंगे, जब तक कि हम इसके सांस्कृतिक एवं नैतिक मेरूदण्ड को तोड़ न दें। इसलिए मैं यह प्रस्तावित करता हूँ कि हम भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति एवं संस्कृति को बदल दें, क्योंकि यदि भारतवासी यह सोचने लगें कि जो विदेशी और अंग्रेजी में है, वह उनके आचार-विचार से अच्छा एवं बेहतर है, तो वे अपना आत्मसम्मान एवं संस्कृति खो देंगे तथा वे एक पराधीन कौम बन जाएंगे, जो हमारी चाहत है।”
लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति भारतीयों को उनकी भाषा से पृथक कर वैचारिक रूप से उन्हें पंगु बनाने की थी, उनके आत्मविश्वास को कमजोर करना था, जिसे हम नहीं समझ सके।
देश के गणतंत्र बनने के बाद भाषा की अहमियत हमें समझाने की कोशिश सोवियत रूस ने भी की थी। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को दृढ़ करने के उद्देश्य से एक भारतीय राजनयिक को सोवियत रूस में भारत का राजदूत बनाकर भेजा गया, जहाँ उसने अपना कार्यभार ग्रहण-पत्र अंग्रेजी में सौंपा। भारतीय भाषा में न होने के कारण वहाँ की सरकार ने उस पत्र को स्वीकार करने से मना कर दिया और याद दिलाया कि अंग्रेजी गुलाम भारत की भाषा थी, अंग्रेजी में पत्र प्रस्तुत करना उसी गुलामी का प्रतीक है। फिर किसी गुलाम देश के साथ अंतर्राष्ट्रीय संबंध स्थापित करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता। भाषा के सवाल पर सोवियत रूस की यह फटकार भाषा के प्रति हमारी उदासीनता पर करारा प्रहार है।
भाषा के प्रति उसके निवासियों के गहरे लगाव को फ्रांस की एक घटना के माध्यम से भी समझा जा सकता है- प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस का कुछ भू-भाग जर्मनी के अधीन हो गया था। जर्मनी की महारानी उस क्षेत्र के एक स्कूल का दौरा करने गईं। उन्होंने विद्यार्थियों से जर्मनी का राष्ट्रगान सुनाने को कहा। केवल एक बच्ची ही राष्ट्रगान सुना सकी। यह देखकर महारानी प्रसन्न हो गईं और उस बच्ची से कुछ माँगने के लिए बोलीं। बच्ची के मुँह से अचानक ही ये शब्द निकल पड़े- “हमारी शिक्षा का माध्यम हमारी भाषा फ्रेंच बना दीजिए।” इसे कहते हैं अपनी भाषा के प्रति अनुराग।
भाषा की अस्मिता का प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। अंग्रेजी शिक्षा नीति के चलते न केवल हिंदी, अपितु अन्य सभी भारतीय भाषाएँ हाशिए पर आ गई हैं। इन दिनों भारतीय जीवन में व्याप्त पाश्चात्य प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जो अंग्रेजी की देन है। खान-पान, रहन-सहन, पठन-पाठन एवं विचार-विमर्श ही नहीं, आज संबोधन एवं अभिवादन की भाषा भी अंग्रेजी हो गई है। बाजारवादी शक्तियाँ विज्ञापन के माध्यम से हमारे संस्कार को बिगाड़ने पर तुली हैं। किसी समाज के संस्कार को बिगाड़ने के तमाम कारणों में व्यक्ति की बोलचाल व व्यवहार की भाषा को बिगाड़ देना भी मुख्य है। आजकल के विद्यार्थियों के मन में अपनी भाषा के प्रति जो अनुराग होना चाहिए, उसका अभाव है। प्रायः देखने में यही आता है कि अध्यापक और अभिभावक भी हिंदी भाषा पर ध्यान कम ही देते हैं। आज के युवा कैरियर बिल्डिंग के नाम पर अपनी भाषा से विमुख होकर संस्कृति और सभ्यता से भी दूर होते जा रहे हैं।
हिंदी के प्रति नवयुवकों के मन में जो उदासीनता है, उसका एक कारण हिंदी को रोजगार की भाषा न बनाया जाना भी है। हिंदी को रोजगार से जोड़े बिना वर्तमान युवा पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति वह भाव नहीं जाग्रत किया जा सकता, जिसकी हम आशा करते हैं।
भाषा के प्रश्न को गंभीरता से लेते हुए उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया और न्यायमूर्ति एस. मोहन की खण्डपीठ ने यह निर्णय दिया था कि प्रारंभिक स्तर पर बच्चों को शिक्षा केवल मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। इसलिए कि मातृभाषा में दी गई शिक्षा ही संस्कृति एवं परंपराओं पर गर्व करना सिखाती है। संविधान के अनुच्छेद 350(ए) के अनुसार प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा के लिए पर्याप्त सुविधाएँ जुटाने का उत्तरदायित्व राज्यों तथा स्थानीय निकायों का है। कर्नाटक सरकार ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को स्वीकार कर एक साहसिक व सराहनीय कार्य किया, हाँलांकि इसके क्रियान्वयन का अंग्रेजी मानसिकता के अभिभावकों ने ज़ोरदार विरोध किया था, पर सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति के सामने उनकी चल न सकी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त यह महसूस किया गया था कि एक संविधान, एक राष्ट्रध्वज एवं एक राष्ट्रगान की ही भाँति देश की एक राष्ट्रभाषा का होना भी आवश्यक है, क्योंकि राष्ट्रभाषा के अभाव में राष्ट्र गूँगा होता है। हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने के लिए जिन राष्ट्रीय नेताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें महात्मा गाँधी प्रमुख हैं। हिंदी को संपूर्ण भारत की व्यावहारिक भाषा बनाने के अभियान में गाँधीजी का योगदान अद्वितीय है। राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रभाषा के प्रति अपने निश्चय को उन्होंने इन शब्दों में प्रकट किया है- “मैं हमेशा यह मानता रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को नुकसान पहुँचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रान्तों से पारस्परिक संबंधों के लिए हम हिंदी सीखें। ऐसा करने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वह राष्ट्रीय होने लायक है। वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है, जिसे अधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो।”
सन् 1910 ई. में गाँधीजी ने कहा था- “हिंदुस्तान को अगर सचमुच राष्ट्र बनाना है तो राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है।”
सन् 1916 ई. में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधीजी ने हिंदी में भाषण देते हुए स्पष्ट घोषणा कर दी थी- “हिंदी का प्रश्न मेरे लिए स्वराज्य के प्रश्न से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।” एक भाषा- एक लिपि विषयक इसी अधिवेशन में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित हुआ था कि हिंदी भाषा और देवनागरी का प्रचार-प्रसार देश हित एवं राष्ट्रीय एकता की स्थापना हेतु होना चाहिए। इस प्रस्ताव का समर्थन तमिल भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार रामास्वामी अय्यर ने किया था। राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक समरसता को बनाए रखने में राष्ट्रभाषा की महत्ता को गाँधीजी ने अच्छी तरह से निरूपित किया है- “हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने में एक दिन भी खोना देश को भारी सांस्कृतिक नुकसान पहुँचाना है। जिस प्रकार हमारी आजादी को ज़बरदस्ती छीनने वाले अँग्रेजों की सियासी हुकूमत को हमने सफलतापूर्वक इस देश से निकाल दिया, उसी तरह हमारी संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को भी यहाँ से निकाल बाहर करना चाहिए। देवनागरी के समान सरल, जल्दी सीखने योग्य और तैयार लिपि दूसरी कोई है ही नहीं। उर्दू और रोमन में भी वैसी सम्पूर्णता और ध्वन्यात्मकता नहीं है, जैसी देवनागरी लिपि में।”
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन राष्ट्रभाषा को राष्ट्रीयता का स्रोत मानते थे। उनका कहना था- “कोई विदेशी भाषा हमारे देश की रक्षा नहीं कर सकती। राष्ट्र के विकास के लिए स्वभाषा अनिवार्य है।” उनके स्वभाषा का आशय हिंदी से ही था। टंडनजी न केवल हिंदी, अपितु अन्य सभी भारतीय भाषाओं के व्यावहारिक बनाए जाने के प्रबल पक्षधर थे। भाषा के साथ-साथ उसके सांस्कृतिक विकास पर भी उनका बल था, क्योंकि भाषा की संस्कृति ही उसे अपनी परंपराओं पर गर्व करना सिखाती है। भाषा का उसकी संस्कृति से गहरा संबंध है, संस्कृति शरीर है तो भाषा उसका प्राणतत्त्व।
इस बात को पुनः दोहराना चाहूँगा कि राष्ट्रीय एकता के लिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता का अनुभव स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही किया जाने लगा था। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के प्रयासों से ही सितंबर 1949 ई. में संविधान सभा में राजभाषा के विषय पर विचार-विमर्श हुआ। 12, 13, एवं 14 सितंबर 1949 ई. में संपन्न इस तीन दिवसीय सम्मेलन में उपस्थित 71 सदस्यों ने हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया एवं शासकीय प्रयोग हेतु भारतीय अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय रूप को अपनाने की बात तय हो गई। हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा और उसका समर्थन श्री शंकर राव ने किया, जो अहिंदी भाषी थे।
26 जनवरी 1950 ई. को भारत का संविधान लागू हुआ। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार संविधान लागू होने के दिन से 15 वर्षों तक हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी संघ की सह राजभाषा के रूप में जारी रखने और उसके बाद हिंदी को पूरी तरह से राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की योजना थी। पर ऐसा हो नहीं सका। नेताओं की व्यक्तिगत स्वार्थपरता के चलते भाषा-प्रेमियों की हिंदी को राष्ट्रभाषा के आसन पर बिठाने की चाहत भेदभाव की भेंट चढ़ गई। मतों के गुणा-गणित के आधार पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को साधने के लिए देश के तथाकथित कर्णधारों ने जातिवाद, धर्मवाद, संप्रदायवाद एवं क्षेत्रवाद की भाँति भाषा को भी वाद-विवाद का विषय बना दिया, जिसमें उलझकर हिंदी को उसका गौरव दिलाने का चिर प्रतीक्षित स्वप्न, स्वप्न बनकर ही रह गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के उनहत्तर वर्ष बाद भी देश की एक राष्ट्रभाषा का न होना देश की अस्मिता एवं उसके आत्मगौरव के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है?
वह भाषा, जो वन्देमातरम् एवं भारत माता की जय के उद्घोष की उत्प्रेरिका रही हो, जिस भाषा ने भारतवासियों की सुप्त चेतना को झंकृत कर उनकी विलक्षणता का उन्हें बोध कराया हो, वह भाषा जो स्वतंत्रता सेनानियों के अधरों का क्रांति-गीत बनकर व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन का आह्वान करती रही हो, वह भाषा जो देश के विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच समन्वयात्मक समझ विकसित कर उन्हें आपस में जोड़कर रखने में समर्थ हो। जो भाषा देशवासियों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का मूलाधार हो, जो भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में लिखी-पढ़ी, समझी एवं सराही जा रही हो, जो निकट भविष्य में विश्व की संपर्क भाषा बनने की ओर अग्रसर हो, उस हिंदी का अपनी ही भूमि पर अंग्रेजी के अनुवाद की भाषा बनकर निर्वासन की जिंदगी जीना दुखद ही नहीं, चिंताजनक भी है। राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का उद्गार दर्शनीय है- “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र का बोध हो ही नहीं सकता। जहाँ राष्ट्र है, वहाँ राष्ट्रभाषा का होना लाज़मी है। अगर संपूर्ण भारत को एक राष्ट्र बनाना है तो उसे एक भाषा का आधार लेना पड़ेगा।”
अंग्रेजों ने भारत को कई स्तरों पर कमजोर करने की साजिश रची थी। हिंदी और उर्दू के सवाल को हवा देकर सांप्रदायिक वातावरण को बिगाड़ने की उनकी कूटनीतिक चाल सफल भी हुई। सन् 1948-49 में भारत की 14 भाषाओं में ‘हिंदुस्तानी’ का प्रवेश उनकी कुटिल मंशा का ही प्रतिफल था। वह हिन्दुस्तानी समझौते की भाषा बनकर रह गई, जो बोलचाल के लिए उपयुक्त तो थी, पर उसमें साहित्यिक सामर्थ्य का अभाव था।
भारतीय संविधान लागू होने पर हिंदी को राजभाषा के रूप में मात्र घोषित कर 15 वर्षों की अवधि तक अंग्रेजी को राजभाषा का मान देते रहना और आशा रखना कि एक न एक दिन हिंदी राजभाषा का गौरव प्राप्त कर लेगी, कितना हास्यास्पद है। केंद्रीय गृहमंत्रालय द्वारा बनाए गए राजभाषा अधिनियम की धारा 3/1 के अंतर्गत शासकीय प्रयोजनों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में आगे भी जारी रखने का निर्णय लिया गया, फिर राजभाषा अधिनियम की धारा 3/2 के अन्तर्गत यह व्यवस्था दे दी गई कि जब तक भारत के एक भी राज्य की सरकार हिंदी को अपने राज्य की राजभाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगी, तब तक हिंदी संघ की राजभाषा के रूप में क्रियान्वित नहीं हो सकती। राजभाषा अधिनियम के इस सशर्त समझौते ने हिंदी को संघ की सशक्त राजभाषा बनने के सारे रास्ते ही अवरूद्ध कर दिए। इसलिए कि दक्षिण भारत का एक राज्य तमिलनाडु हिंदी का प्रबल विरोधी है ही और पूर्वोत्तर स्थित नागालैंड अंग्रेजी को ही अपनी राजभाषा के रूप में अपना चुका है।
मैकाले द्वारा अपने होम सेक्रेटरी को लिखे गये पत्र की कुछ पंक्तियों को यहाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा, जिसमें उसने कहा था- “मैं नहीं कह सकता कि भारत राजनीतिक रूप से आपके अधीन रह पायेगा, लेकिन इतना मैं अवश्य करके जा रहा हूँ कि यह देश राजनीतिक स्वतंत्रता पा लेने के बाद भी अंग्रेजी मानसिकता, अंग्रेजी सभ्यता और अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकेगा।” उसका कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम अंग्रेजी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके।
दुर्भाग्य की बात है कि हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के प्रश्न पर देश की अन्य प्रान्तीय भाषाओं को इसके समानान्तर खड़ा करने की धृष्टता बार-बार की जाती रही है। बार-बार यह झूठी दलील दी जाती रही है कि हिंदी के राजभाषा बनने से देश की अन्य भाषाओं की अस्मिता खतरे में पड़ जाएगी, जबकि अस्मिता के संकट का खतरा देश की अन्य प्रांतीय भाषाओं को हिंदी से नहीं, बल्कि हिंदी और अन्य प्रांतीय भाषाओं व उनकी बोलियों को अंग्रेजी से है।
हिंदी राष्ट्रीय स्वाभिमान की भाषा है। समय की माँग है कि हम अंग्रेजी की मानसिकता का परित्याग कर भारतीयता के आदर्शों को अपनाएँ तथा हिंदी को भारतीय संस्कृति के विकास का संसाधन बनाएं। भारत को उसका खोया हुआ गौरव तभी प्राप्त हो सकेगा, जब यहाँ का हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपने कार्य, चिंतन-मनन व आपसी संवाद अपने ही देश की भाषा हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में करे। अपना हस्ताक्षर तो वह अपनी भाषा में ही करे एवं हिंदी को अपनी पहचान की भाषा बनाए। हिंदी के प्रति हीन भावना से मुक्ति का मार्ग हिंदी से निकलेगा। हिंदी हमारे राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए वरदान सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। हिंदी के माहात्म्य से संबंधित कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं-
जन सामान्य की भाषा हिन्दी।
जन–मन की जिज्ञासा हिन्दी।
जन–जीवन में रची बसी
बन जीवन की अभिलाषा हिन्दी।
सेवा भाव सिखाती हिन्दी।
सबके मन को भाती हिन्दी।
सबके दिल की बातें करती
सबका दिल बहलाती हिन्दी।
स्नेह, शील, सद्भाव, समन्वय
संयम की परिभाषा हिन्दी।
जय हिंदी!
संदर्भ:-
1. आजकल (मासिक पत्रिका), सितंबर- 2015
2. राजभाषा भारती (त्रैमासिक पत्रिका) 2015-2016
3. आधारशिला (मासिक पत्रिका) अगस्त-2015 एवं सितंबर-2016
4. राजभाषा विमर्श, लेखक डॉ. पन्ना प्रसाद
– आचार्य बलवन्त