प्रधान संपादक : के.पी. 'अनमोल'
संस्थापक एवं संपादक: प्रीति 'अज्ञात'
तकनीकी संपादक :
मोहम्मद इमरान खान
"मुझे लेखक के रूप में जानते सब हैं, मानता कोई नहीं।" - सूरज प्रकाश
सूरज प्रकाश, यह नाम ही चकाचौंध से भरा है लेकिन उनकी सादगी अनायास ही आपका मन मोह लेती है। उनकी बातों में अपनापन है, स्नेह है, आशीष है और अहंकार तो उन्हें छूकर भी नहीं गया है। उनके शब्द यथार्थ से जुड़े हैं और आपको सही दिशा तथा उम्मीद देते हैं। तक़नीक के मामले में उन्होंने युवाओं को भी पीछे छोड़ दिया है। उनका रचनात्मक कार्य समय के साथ अनवरत चलता रहा है। आप कहते हैं - "मैंने देर से लिखना शुरू किया लेकिन इतना काम कर लिया है कि अब देरी से लिखने का मलाल नहीं सालता।" और फिर जब इनकी साहित्यिक यात्रा पर नज़र पड़ती है तो इनकी सकारात्मक ऊर्जा, कार्य कुशलता और ज्ञान के आगे नतमस्तक हो जाने को जी चाहता है।
छ: कहानी-संग्रह, तीन उपन्यास, दो व्यंग्य-संग्रह, एक कहानी-संग्रह गुजराती भाषा में, इसके साथ ही कई अंग्रेज़ी, गुजराती विश्वप्रसिद्ध कहानियों, उपन्यासों के अनुवाद, नौ पुस्तकों का संपादन, रिज़र्व बैंक के लिए भी छह पुस्तकों का संपादन.....और सूची लंबी होती जाती है। सूरज प्रकाश जी की कहानियों, उपन्यास और लेखन पर एम फिल, पीएच डी के लिए शोधकार्य होता रहा है। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी इनकी लिखी कहानियों का कई दशकों से प्रसारण होता आ रहा है। 'गुजरात साहित्य अकादमी' और 'महाराष्ट्र अकादमी' के सम्मान के अलावा आपको 2009 में मुंबई की संस्था आशीर्वाद की ओर से 'सारस्वत सम्मान' प्राप्त हो चुका है।
पाठकों से सीधे जुड़ाव के कारण इनकी पाठक संख्या लाखों में है और सभी इनके मुरीद हैं।
उनसे फोन, मेल और संदेशों के माध्यम से हुई इस बातचीत में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। सूरज सर अपने नाम के अनुरूप ही युवाओं के लिए प्रकाश पुंज की तरह हैं। आप न सिर्फ तक़नीक के मामले में बहुत समृद्ध हैं बल्कि हम सभी को इसका पूरा उपयोग करने की प्रेरणा भी देते हैं। अत्यंत ही सरल और हँसमुख व्यक्तित्व के धनी सुप्रसिद्ध, चर्चित और सर्वप्रिय प्रतिष्ठित साहित्यकार सूरज प्रकाश जी से हुआ वार्तालाप आप पाठकों के समक्ष है -
प्रीति 'अज्ञात'- सर्वप्रथम तो चैट पर आधारित आपके लघु उपन्यास 'नॉट इक्वल टू लव' के लिए बधाई! इसकी संकल्पना के पीछे की कहानी भी साझा करें।
सूरज प्रकाश- हिंदी का पहला चैट उपन्यास 'नॉट इक्वल टू लव' लिख कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। हमेशा कुछ अलग करना चाहता हूं, करता भी रहा हूं। चाहे जीवन में हो या लेखन में।
1997 में मैंने एक कहानी लिखी थी – दो जीवन समांतर। लगभग 8 पेज में समायी 3200 शब्दों की ये कहानी एक नये ही फार्मेट में लिखी गयी थी। टेलीफोन पर बातचीत के रूप में। कहानी इतनी सी थी कि एक प्राध्यापक अपनी भूतपूर्व प्रेमिका और इस समय वरिष्ठ आइएएस अधिकारी को बीस बरस के अरसे के बाद फोन करता है। इस कहानी में वे बीस बरस पहले की, बीच के अंतराल की और वर्तमान की बात करते हैं। उलाहने देते हैं, शिकायतें करते हैं, प्रेम प्रसंग याद करते हैं और दोबारा न मिल पाने की कचोट साझा करते हैं। बेहद रोचक संवादों में लिखी गयी ये कहानी खूब पसंद की जाती रही है, बीसियों बार छपती रही है। कई भाषाओं में इसके अनुवाद हुए हैं, एकाधिक मंचन हुए हैं और रेडियो पर सुनायी जाती रही है। ये कहानी ऑडियो रूप में नेट पर उपलब्ध है। मैंने शायद सबसे ज्यादा बार यही कहानी सुनायी हो।
अब हुआ यह है कि इन 19 बरसों में तकनीकी विकास, सोशल मीडिया के दखल और ग्लोबल विश्व की धारणा ने हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन और हमारी सोच को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। हम सबके जीवन में मोबाइल और सोशल मीडिया ने सबसे ज्यादा जगह घेर ली है और आपसी संवाद के, संप्रेषण के सारे तौर तरीके बदल गये हैं।
इन सबके आलोक में आपसी संबंधों को नये नजरिये से देखने की जरूरत आ पड़ी है। जीवन के साथ-साथ साहित्य भी इन सारी गतिविधियों से अछूता नहीं रहा है। इधर की कहानियों और उपन्यासों की बुनावट में फेसबुक वगैरह की मौजूदगी देखी जा सकती है।
तय है, उम्र के साढ़े छ: दशक और लेखन के लगभग तीन दशक पार कर लेने के बाद मैं भी इन सब की आंच से बचा नहीं रह सका। बल्कि कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुआ हूँ। इधर की मेरी सारी कहानियां फेसबुक से लिये गये पात्रों पर आधारित हैं और बहुत पसंद की गयी हैं। फेसबुक की कहानियों का संकलन हाल ही में लहरों की बांसुरी तथा अन्य कहानियां के नाम से आया है।
टेलीफोन पर बात के रूप में लिखी गयी कहानी के 19 बरस बाद मैंने एक और प्रयोग किया है। फेसबुक पर चैट के रूप में लघु उपन्यास – नॉट इक्वल टू लव लिख कर। अब उपन्यास पाठकों के बीच है। वे ही तय करेंगे कि कैसा है।
प्रीति 'अज्ञात'- 'दो जीवन समांतर' कहानी मैंनें भी पढ़ी-सुनी है और दोनों ही रूपों में यह अपना गहरा असर छोड़ जाती है। 'नॉट इक्वल टू लव' उपन्यास फेसबुक की दुनिया से जुड़े इंसानों की ज़िंदगी का एक भावुक पृष्ठ अत्यधिक ईमानदारी के साथ खोल जाता है। यह एक सुकून भरा उपन्यास है, जिसके पात्र काल्पनिक नहीं लगते।
सूरज प्रकाश- जी, प्रीति। मैं जानता हूँ कि ये आपको बेहद पसंद आया था और इसीलिए पीडीएफ मिलते ही आपने तुरंत इस पर अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया भी दी थी।
प्रीति 'अज्ञात'- ये बतायें कि पाठकों तक ये अनूठा उपन्यास कैसे पहुंच सकता है।
सूरज प्रकाश – फिलहाल ये उपन्यास snapdeal तथा shop.storymirror.com पर ऑनलाइन उपलब्ध है।
प्रीति 'अज्ञात'- अपने बचपन, परिवार, शिक्षा के बारे में बताइये। कोई ऐसी बात जो सबसे अलग थी।
सूरज प्रकाश- जहां तक बचपन और परिवार या शिक्षा की बात है, मेरा बचपन देहरादून में बीता। मेरे माता पिता पाकिस्तान से उजड़ कर आए थे और नौकरी के सिलसिले में देहरादून में बस गये थे। वे सब कुछ छोड़ कर आये थे और नये सिरे से जड़ें जमाना इतना आसान नहीं था। बहुत संघर्ष के दिन थे हमारे बचपन के और हम सब भाई-बहिनों की पढ़ाई मुश्किल से ही पूरी हो पायी। यूँ कहें कि हम सब भाई-बहिनों के हिस्से में औसत बचपन ही आया। मैं ही अपने बलबूते पर ठीक-ठाक निकल पाया। बाकी भाई-बहिनों में से दो ही अपनी राह बना पाये और दो भाइयों ने और एक बहन ने अपनी पूरी जिंदगी खटने में लगा दी। उनके लिए अफसोस होता है।
बीए करते ही एक अच्छी सी नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद गया। वहीं से एमए किया। तब से एक तरह से घर से बाहर ही हूँ। नौकरियाँ बदलते बदलते 1981 में रिजर्व बैंक में बंबई आया और इसी शहर और इसी नौकरी का होकर रह गया।
संयोग देखिये कि परिवार में कई मामलों में, मैं सबसे पहला रहा। पूरे परिवार में पहला एमए था और कई वर्षों तक इकलौता ही रहा। नौकरी के सिलसिले में भी, मैं शायद पहला अधिकारी बना और अपनी पसंद से लव मैरिज करने वाला भी मैं पहला रहा। पूरे परिवार में पहला लेखक बना। बेशक बाद में मेरे छोटे भाई ने और मेरी पत्नी ने भी लिखना शुरू किया और उनकी अपनी किताबें हैं।
प्रीति 'अज्ञात'- लेखन स्वतः स्फुटित भावों और विचारों की प्रेरक अभिव्यक्ति तो है ही पर सामाजिक वातावरण का भी इस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। एक तरह से देखा जाए तो मानसिक परिस्थितियों के साथ ही हमारा परिवेश भी लेखन की तरफ रुझान का एक प्रमुख कारण होता है। आपकी साहित्यिक यात्रा और अनुभव कैसे रहे?
सूरज प्रकाश- हम जिस मोहल्ले में रहते थे वह गरीबों का मुहल्ला था। सामाजिक रूप से भी पिछड़ा हुआ। स्कूल में मास्टरों की मार खाते थे और घर पर बड़ों की। खुशियाँ क्या होती हैं, हम जानते ही नहीं थे। कुछ खाने को बेहतर मिल जाए या पहनने को नए कपड़े मिल जाए वही हमारे लिए सबसे बड़ी खुशी होती थी। यहां तक कि किताबें कॉपियां जुटाना भी हमारे लिए मुश्किल होता था। स्कूल के पास बनी खुशीराम लाइब्रेरी में पत्रिकाएं पढ़ने जाते थे। पढ़़ने का संस्कार वहीं से मिला। बेशक नौंवीं-दसवीं तक आते-आते जासूसी उपन्यास और गुलशन नंदा सरीखे लेखकों की दो-दो किताबें दिन में पढ़ कर एक किनारे रख देते थे। बेशक बहुत पहले कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं लेकिन कहानी लिखने के लिए मुझे बहुत देर तक, लगभग 35 वर्ष की उम्र तक इंतजार करना पड़ा था। उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा है। ये बात अलग है कि मुझे लेखक के रूप में जानते सब हैं, मानता कोई नहीं। इतना लिखने के बाद भी आज तक कहीं जिक्र नहीं हुआ होगा। मैं विशुद्ध रूप से पाठकों का लेखक हूं।
प्रीति 'अज्ञात'- और अगर मैं कहूं कि आप पाठिकाओं के पसंदीदा लेखक हैं।
सूरज प्रकाश- कह सकती हैं। मेरी कहानियों में महिला मनोविज्ञान बहुत आता है तो महिलाएं उन कहानियों में एट होम महसूस करती हैं।
प्रीति 'अज्ञात'- आप अपने लेखन के बारे में बता रहे थे।
सूरज प्रकाश- अनुवाद, मूल लेखन, कहानियाँ, उपन्यास, संपादन कुल मिलाकर 35 किताबें हो गई हैं मेरी और मेरे लेखन पर तीन पीएचडी और दो एमफिल हुई हैं और कुछेक सरकारी पुरस्कार मेरी झोली में आए हैं लेकिन सच कहूं तो मैं अपने पाठकों के सहारे ही जिंदा हूं। मेरे पास बहुत बड़ा पाठक वर्ग है और फेसबुक ने इसमें कई गुना इजाफा किया है। आजकल मेरी कहानियों की रचना फेसबुक के जरिये होती है, उनके अनुवाद फेसबुक के जरिए ही होते हैं फेसबुक ही हमें कहानी के अनगिनत पाठक देता है और बाद में बहुत अच्छे दोस्त भी।
प्रीति 'अज्ञात'- लेखन और तक़नीक का प्रयोग आप बख़ूबी करते रहे हैं। आपकी वेबसाइट पर आपकी सभी कृतियों के डाउनलोड भी किये जा सकते हैं। एक रचनाकार के लिए तक़नीकी ज्ञान कितना आवश्यक है?
सूरज प्रकाश - हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में तकनीकी विकास की अनदेखी नहीं कर सकते। तकनीक/टेक्नोलॉजी हमारे जीवन के हर क्षेत्र में बहुत भीतर तक पैठ कर चुकी है और इससे लेखन में निश्चित रूप से सहायता ही मिलती है। कंप्यूटर हो लैपटॉप हो, मोबाइल हो, यहाँ पर आपका सारा साहित्य हर समय उपलब्ध रहता है, आप दुनिया के लेखकों और पाठकों के संपर्क में रहते हैं और दुनिया भर की गतिविधियों में तकनीक के सहारे शामिल भी रहते हैं। मैं इसका इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही करता हूँ क्योंकि मैं इसमें सहजता महसूस करता हूँ। अब यही देखिए कि मैं आपके इन सवालों के जवाब बोलकर टाइप कर रहा हूँ। आपने सही कहा कि मेरी वेबसाइट है और ब्लॉग भी है। मेरा समूचा साहित्य, अनुवाद, मूल रचनाएं सब कुछ मेरी वेबसाइट पर उपलब्ध है। कोई भी पढ़ने के लिए डाउनलोड कर सकता है। मुझे कोई एतराज नहीं है। न केवल वेबसाइट पर बल्कि नेट पर, विकीपीडिया में, अन्य ब्लागों और नेट पत्रिकाओं में मेरा सारा साहित्य बिखरा पड़ा है। गूगल के सहारे कहीं भी मेरी कोई भी रचना ढूंढी जा सकती है। एक पोर्टल है प्रतिलिपि डॉट कॉम। ये बताता है कि मेरी कहानी लहरों की बांसुरी लगभग 70000 लोग पढ़ चुके हैं और मेरी बाकी कहानियों के पाठक डेढ लाख से भी अधिक हैं। ये सब तकनीकी साझेदारी की वजह से ही संभव हो पाता है कि आप को किस रचना के लिए इतने पाठक मिलते हैं।
प्रीति 'अज्ञात'- आप लेखक ही बनना चाहते थे या संयोगवश ऐसा हुआ?
सूरज प्रकाश - शायद मैं लेखक ही बनना चाहता था। बना भी। अब बचपन की बातें तो ऐसी ही होती हैं। छुटपन में जासूसी उपन्यास पढ़ कर जासूस बनना चाहता रहा, रेडियो सुनकर रेडियो अनाउंसर बनना चाहता रहा। अच्छी किताबें पढ़कर लेखक बनने की चाह भी रही ही।
तब इतनी समझ ही कहाँ होती है कि क्या बनने के लिए क्या-क्या तैयारी करनी होती है। मेरी किस्मत अच्छी रही कि अधूरी पढ़ाई पूरी हो पायी वरना क्लर्क, सेल्समैन या छोटा मोटा कर्मचारी ही बना रह जाता। ये सब धंधे किये भी। फुटपाथ पर सामान तक बेचा और दुकानों पर नौकरी भी की। लेकिन हमेशा छटपटाहट रही कि कुछ बेहतर करना है। उसी छटपटाहट ने यहाँ तक पहुंचाया।
प्रीति 'अज्ञात'- पद्य से गद्य की ओर झुकाव कैसे और क्यों हुआ? आप किसमें अधिक सहज महसूस करते हैं? लेखन-यात्रा से जुड़ा कोई विशेष संस्मरण?
सूरज प्रकाश- जहाँ तक पद्य से गद्य की ओर झुकाव का सवाल है मैंने 13 बरस की उम्र से कच्ची-पक्की कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। कुछेक स्थानीय अखबारों में छपी भी लेकिन अब मैं अपनी सारी कविताएं एक सिरे से खारिज कर चुका हूँ। मेरे पास कुल जमा तीन ही कविताएं हैं और बाकी सब फाड़ दी हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझे कविता लिखनी आती थी या मैं कविता में अपनी बात कह पा रहा था। बेशक गद्य भी मैंने लघुकथाएं लिखने से शुरू किया और इस समय मैं लंबी-लंबी कहानियाँ लिख रहा हूं और मेरी पिछली सभी कहानियां पैंतीस चालीस पेज की हैं। मुझे अब लंबी कहानियां लिखने में ज्यादा आनंद आता है। लेकिन लिखने की ये यात्रा भी आसान नहीं थी। लिखना लगभग 35 बरस की उम्र में शुरू हुआ। देर से शुरू करने के पीछे बहुत सारे कारण रहे। मुझे समझ नहीं आता था कि कैसे लिखना है और क्या लिखना है। कोई बताने वाला था नहीं। तो बहुत कोशिश करने पर भी मैं लिख नहीं पाता था और वरिष्ठ कहानीकार मित्रों को जब कोई रचना सुनाता तो वे कोई प्रतिक्रिया नहीं देते थे बल्कि चुप हो जाते थे। लिखने की मेरी छटपटाहट जस की तस रहती थी। तभी दिल्ली में मेरे ऑफिस में एक कलीग ने एक ऐसी घटना सुनायी जिसने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी थी। उस घटना ने ही मुझे लेखक बनाया। घटना किसी और की थी लेकिन उसने मुझे इतना परेशान किया कि उस घटना के तीन-चार बरस बाद मैंने उस पर एक लघु कथा लिखी। यह लघु कथा सारिका के सर्व भाषा लघुकथा विशेषांक में छपी। इसे पहला पुरस्कार मिला। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। यहीं से मेरी लेखन यात्रा की शुरुआत हुई। अब तक पचास कहानियाँ, तीन उपन्यास और सौ के करीब व्यंग्य लिखे हैं। इतर लेखन और अनुवाद भी बहुत किये।
प्रीति 'अज्ञात'- एक अच्छी कहानी में किन तत्त्वों की उपस्थिति आवश्यक है?
सूरज प्रकाश- जहाँ तक कहानी के तत्वों की बात है, मैं मानता हूं कि कहानी की पहली शर्त है कि उसमें कहानी होनी चाहिए। उसमें धड़कता हुआ जीवन हो। कहानी सच और कल्पना की बेहतरीन ब्लैंडिंग के साथ साथ लेखकीय कौशल की भी मांग करती है। कहानी में इतनी ताकत होनी चाहिए कि खुद को पढ़वा ले जाये। कहानी भाषा, शैली, कथ्य, कथन सबके हिसाब से अपने समय के साथ चले। उसमें अपने काल को पार करने की ताकत होनी चाहिये। हम सिर्फ अपने वक़्त के लिए ही तो नहीं लिख रहे होते। आखिर हमारे पास साहित्य की, कथा लेखन की विशाल विरासत है जो हम तक हर पीढ़ी ने समृद्ध करते हुए पहुँचाई है। तो हमारी पीढ़ी का भी ये नैतिक दायित्व बनता है कि कुछ स्थायी रचें। कुछ कालजयी रचें और कथा लेखन की स्वस्थ और समृद्ध परंपरा में अपना योगदान दें।
मेरा यह मानना है कि कहानी ऐसी हो कि लेखक जहाँ कहानी खत्म करता है पाठक वहीं से कहानी शुरू करे। यह पाठकीय सहभागिता की बात है। उस पर मैं हमेशा ध्यान देता हूं। अगर मेरी कहानी पाठक अपने हिसाब से आगे बढाते हैं तो लेखन कर्म पूरा होता है। वह कहानी तब सब पाठकों की हो जाती है और वे उसमें अपने अपने तरीके से आनंद लेते हैं। उस कहानी का हिस्सा बनते हैं और कहानी उनके जीवन का हिस्सा बनती है।
प्रीति 'अज्ञात'- आपके हिसाब से साहित्य क्या है? इस श्रेणी में किस तरह के लेखन को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
सूरज प्रकाश- साहित्य जोड़ने का काम करता है। वह दो तरीके से सबको जोड़ता है। वह पहले लेखक को अपने आसपास के जीवन से, अपने वक़्त की सच्चाइयों से जोड़ता है और उसे लिखने के लिए तैयार करता है और दूसरी ओर पाठक को लेखक के नजरिये से जोड़ता है। साहित्य हमेशा से हर काल में और हर देश में, हर संस्कृति में सभ्यता के विकास का साक्षी रहा है और हमेशा रहेगा।
हम देखें कि हम किस तरह के लेखन को प्राथमिकता देते हैं। अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत पढ़ाया जाता है कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। दुर्भाग्य से साहित्य में और ख़ास तौर पर कविता के क्षेत्र में स्थिति इससे बेहतर नहीं है। वैसे तो हर वक़्त में हमारे समाज में कई तरह के लेखक अपने-अपने हिसाब से काम कर रहे होते हैं और कई तरह के पाठक भी होते ही हैं जो अपनी पसंद के हिसाब से पठनीय सामग्री का चयन करते हैं। यह अलग बात है कि कौन किस प्राथमिकता से किस तरह का और किस वजह से लेखन करता है। सभी लेखक अपनी ओर से अच्छा काम करते ही हैं और लेखन की परम्परा में अपना योगदान देते ही हैं।
प्रीति 'अज्ञात'- साहित्य के नाम पर आजकल जो कुछ भी परोसा जा रहा है क्या इसके लिए प्रकाशक जिम्मेदार हैं? प्रकाशक के क्या-क्या दायित्व हैं? क्या अपनी ज़ेबें भरकर कुछ भी छाप देना सही है या प्रकाशन समूह को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा?
सूरज प्रकाश- जहां तक साहित्य के नाम पर इस समय जो कुछ परोसा जा रहा है उसके लिए किसको दोष दें ये तय करना बहुत मुश्किल है। एक ही समय में एक तरह का लेखन एक वर्ग के लिए अच्छा हो सकता है तो उसी वक़्त में वही लेखन दूसरे वर्ग के लिए बुरा भी हो सकता है। अच्छा या बुरा सापेक्ष स्थितियाँ हैं। कोई इसके लिए फेसबुक को दोषी ठहराता है तो कोई सोशल मीडिया को। किसी की निगाह में व्हाट्सअप पर बने सैकड़ों समूह साहित्य का बेड़ा गर्क कर रहे हैं तो किसी को इन्हीं समूहों में असीम संभावनाएं नजर आ रही हैं। ये सच है कि आजकल के लेखक को सोशल मीडिया के कारण तुरंत अपनी रचना पर प्रतिक्रिया मिल रही है। तारीफ कौन नहीं चाहता। दोष किसे दें।
जहाँ तक प्रकाशक का सवाल है, वह एक व्यवसायी व्यक्ति है। वह समाज सुधारक या साहित्य का भला चाहने वाला या करने वाला साधु संत नहीं है। वह क्या क्या दंद-फंद करके कितनी तिजोरी भर रहा है और इस दौड़ में कौन कितना आगे निकल गया, ये सवाल बेमानी है। अभी कुछ दिन पहले मुझे दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशक से संदेश आया था कि वे मेरी किताब छापना चाहते हैं और अपनी सेवाओं के बदले मुझसे चार लाख रुपये लेंगे। ये बाजार का नया चेहरा है। यहां बाबा रामदेव भी योग सिखाते-सिखाते बाजार में बदल जाते हैं।
प्रीति 'अज्ञात'- जी, सचमुच "ये बाज़ार का नया चेहरा है", बड़े-बड़े स्टार, नेता, अभिनेता से लेकर, लेखक तक सभी को अपनी मार्केटिंग स्वयं ही करनी पड़ रही है। पर एक लेखक के लिए यह अक़्सर जेब और रिश्तों पर भारी पड़ जाता है। आपका इस बारे में क्या कहना है?
सूरज प्रकाश - मैं आपसे सहमत हूं कि आज लिखने और छपने से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने लिखे और छपे को बेचना हो गया है। आज बड़े-बड़े स्टार से लेकर लेखक, सभी को अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग स्वयं ही करनी पड़ रही है। आज हम लेखक नहीं उत्पादक हो गये हैं। हम आप जिस वक़्त में बाज़ार में रह रहे हैं, उसमें बाज़ार हावी है और हमें बाज़ार के सारे नियम मानने ही होंगे। हम लेखन करें या कोई और काम, अब हमें अपने पाठक तक खुद पहुंचना होगा और इसके लिए हमें किसी के भरोसे नहीं रहना होगा। हमें यह काम खुद ही करना पड़ेगा। बाज़ार में उतरे बिना हम पाठकों तक नहीं पहुंच सकते। यह बाज़ार का पहला नियम है। हम आज इस बात के आदी हो चुके हैं कि हमें अपनी जरूरत की सारी चीजें घर बैठे और अपनी पसंद और सुविधा से चाहिये। अपनी किताब भी हमें पाठक की पसंदगी की सूची में डालनी ही होगी।
आज हमारे सामने तीन किस्म के लेखक हैं। एक वे जो स्थापित लेखक हैं और उन्हें प्रकाशक सम्मान के साथ छापते हैं, रायल्टी बेशक न दें। दूसरे वे लेखक हैं जिनकी किताबें छपती तो हैं लेकिन प्रकाशन उन्हें पाठक तक पहुँचाने के बजाये पुस्तकालय में डम्प करना बेहतर समझता है। तीसरी श्रेणी में वे लेखक आते हैं जो विजिटिंग कार्ड की तरह अपनी किताबें पैसे दे कर छपवाते हैं और अपनी रचना के संपादन की जरूरत नहीं समझते। इसी तरह की किताबें आजकल ज्यादा छप रही हैं। इसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है। सब अपने-अपने हिसाब से अपनी किताबें अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाना चाह रहे हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
प्रीति 'अज्ञात'- 'स्टोरी-मिरर' के बारे में हमारे पाठकों को जानकारी दीजिए। यहाँ प्रकाशन की प्रक्रिया क्या है?
सूरज प्रकाश - स्टोरीमिरर एक ऐसा प्लेटफार्म है जो पूरी दुनिया के सभी लेखकों और पाठकों को जोड़ना चाहता है। अभी इसमें हिंदी, अंग्रेजी, उडिया, गुजराती और मराठी में पोर्टल पर रचनाएं डाली जा सकती हैं। स्टोरीमिरर ने अपने अस्तित्व के आने के आठ माह के भीतर ही तीस किताबें प्रकाशित की हैं और लगभग 150 पुस्तकें स्वीकृत हैं। स्टोरीमिरर लेखक से कोई राशि नहीं लेता और पाठकों तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करता है। इसके बाजार के मार्केटिंग के तरीके अलग हैं। इनके अलावा स्टोरीमिरर युवा साहित्यिक मेले, रचना शिविर और रचना पाठ के कार्यक्रम आयोजित करता है।
प्रीति 'अज्ञात'- किसी घटना के विरोध में हमें खुलकर लिखना चाहिए और सच्चा लेखक ऐसा करता भी है। लेकिन अपने इसी लेखन के लिए मिले पुरस्कार को लौटा देने या अस्वीकार करने को आप किस तरह देखते हैं?
सूरज प्रकाश - किसी घटना के पक्ष में या विरोध में लिखना लेखक का निजी मामला है। बस, इस तरह का लेखन स्थायी स्वरूप का नहीं हो पाता। हां विरोध दर्ज करने का लेखक को हक़ है और इसका भरपूर उपयोग होना ही चाहिये। लेखन ही विरोध का माध्यम है हमारे पास। पुरस्कार लौटाना एक प्रतिक्रिया थी जो एक व्यक्ति से शुरू हो कर कई भाषाओं में फैली। पुरस्कार या सम्मान हमेशा लौटाये जाते रहे हैं। विष्णु प्रभाकर जी ने राष्ट्रपति भवन में एक बार हुए अपमान के विरोध में पद्मभूषण और खुशवंत सिंह ने आपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में अपना मानपत्र लौटा दिया था।
प्रीति 'अज्ञात'- क्या सोशल मीडिया ने साहित्य और राजनीति का मेल-मिलाप आसान कर दिया है? इसका औचित्य क्या है? रचनाकार और राजनीति को आप किस सन्दर्भ में देखते हैं? क्या यह उसकी सृजनात्मकता को प्रभावित नहीं करता? क्या वर्तमान परिदृश्य में 'साहित्य समाज का दर्पण है' कहना उचित होगा?
सूरज प्रकाश- सोशल मीडिया में साहित्य और राजनीति का मेल मिलाप आसान नहीं होता बल्कि गड़बड़ की स्थिति पैदा करता है। साहित्य अपना काम करता है और राजनीति अपना काम करती है, दोनों कभी भी एक मत या एक मंच पर नहीं हो सकते हैं। राजनीति हमेशा साहित्य को अपने पाले में लाने की कोशिश करती हैं ताकि साहित्यकार उसके पक्ष में खड़ा हो लेकिन साहित्यकार को ही देखना होता है कि वह अपनी बात राजनीति के विपक्ष में ही खड़े हो कर सकता है। राजनीति सृजनात्मकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। कभी भी उसकी सृजनात्मकता को दिशा नहीं देती है।
प्रीति 'अज्ञात'- आजकल उन विषयों पर भी खुलकर लिखा जा रहा है, जिनका ज़िक्र करना भी संकोच से भर देता था। क्या लेखन की कोई सीमाएँ तय हैं? इससे भी कहीं ज्यादा मैं भाषा के बारे में जानना चाहूँगी, क्या बोल्डनेस और प्रोग्रेसिवनेस के नाम पर कुछ भी लिख देना उचित है?
सूरज प्रकाश - मैं आपसे सहमत हूं कि आजकल उन विषयों पर भी खुलकर लिखा जा रहा है जिनके बारे में लेखक कभी संकोच करता था। यह सब सोशल मीडिया का कमाल है जहाँ हमारे पारिवारिक, सामाजिक और सारे रिश्ते बदल गए हैं। दोस्तों को और पाठकों को नए नजरिए से देखा जा रहा है और ऐसी बातें भी सामने आ रही हैं जो पहले अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आती थीं।
बोल्डनेस और अश्लीलता दो अलग-अलग मुद्दे हैं। दस-बीस बरस पहले जो बात अश्लील या बोल्ड मानी जाती थी और जिस पर नाक भौं सिकोडी जाती थी, अब सहज स्वीकार्य है। पिछली पीढ़ी तक के लिए विवाहेतर संबंध या परस्त्री से संबंध बहुत ही खराब बात मानी जाती थी लेकिन आज आप टीवी पर ही विज्ञापन देखते हैं कि सुरक्षित संबंध रखें। यानी इस पीढ़ी को अवैध संबंधों पर एतराज नहीं है, बस बीमारी से बचें। जब समाज में ये सब हो रहा है तो साहित्य भला इनकी आंच से बचा कैसे रह सकता है? समाज की तरह साहित्य भी मैच्योर हुआ है। आप उसे अश्लील कह लें या बोल्ड।
प्रीति 'अज्ञात'- साहित्य सेवा के नाम पर बनते समूहों और उनमें बँटते पुरस्कारों के बारे में आपकी क्या राय है?
सूरज प्रकाश - पुरस्कार स्थापित करने, देने और लेने की एक अलग ही राजनीति हमेशा चलती आयी है। इधर पुरस्कार बहुत बढ़ गये हैं लेकिन उन्होंने अपनी विश्वसनीयता खोयी है। उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है।
प्रीति 'अज्ञात'- इन दिनों सामाजिक सरोकार से दूर कुंठित और व्यक्तिगत भावनाओं से जुड़ा(स्वान्तः सुखाय) लेखन सोशल मीडिया पर बहुत दिखाई देता है। इनका समाज में योगदान किस तरह से है? है भी या नहीं?
सूरज प्रकाश - अपने समाज में इसके योगदान के बारे में बात पूछें तो मुझे यह कहना है कि फेसबुक या व्हाट्सऐप ने बहुत बड़ी संख्या में रचनाकार पैदा किए हैं। दरअसल फेसबुक पर दो किस्म के रचनाकार दिखायी देते हैं। एक जो पहले से ही रचनाकार थे और अधिक पाठकों तक पहुंच के लिए फेसबुक पर आये हैं और दूसरे वे रचनाकार हैं जिन्होंने सबकी देखा-देखी फेसबुक से ही लिखना शुरू किया है। आज बहुत बडी संख्या में ऐसे रचनाकार मिलेंगे जो मोबाइल पर ही रचना लिखते हैं और लगे हाथ पोस्ट भी कर देते हैं। ऐसे रचनाकार बहुत जल्दी में हैं। न वे रचना के भीतर उतर पाते हैं न रचना पाठक के भीतर उतर पाती है। वे संपादन की जरूरत नहीं समझते और बाकी रही सही कसर हाथोंहाथ मिलने वाली टीआरपी कर देती है।
प्रीति 'अज्ञात'- आपको अपनी कौन-सी कृति से विशेष स्नेह है?
सूरज प्रकाश - लेखक की चुनौती अपने खुद के लिखे से होती है। वह पहले से खराब लिखना नहीं चाहता और कई बार पहले से बेहतर लिख नहीं पाता। हर बार पहले से बेहतर रचने की लड़ाई उसे हमेशा लड़नी होती है। इस हिसाब से देखें तो ताजा रचना ही सबसे अच्छी लगती है। कई बार ऐसा भी होता है कि किन्हीं कारणों से लेखक को अपनी कोई खास रचना अच्छी लगती है लेकिन पाठक उसी रचना को ठुकरा देते हैं। कल तक मैं अपनी पिछली कहानी 'लहरों की बांसुरी' को लेकर मोह में था लेकिन 'नॉट इक्वल टू लव' के बाद अब लग रहा है, ये बेहतर रचना है।
प्रीति 'अज्ञात'- आज के युवा साहित्य को आप किस दिशा की ओर जाता देख रहे हैं?
सूरज प्रकाश - पिछली हर पीढ़ी अपने से बाद वाली पीढ़ी की आलोचना ही करती आयी है। मैं हर अगली पीढ़ी को पूरे अंक देता हूं। वे अपना भला-बुरा समझते हैं और तय है वे सभ्यता के विकास का पहिया आगे ही बढ़ाते हैं। युवा साहित्य अपने हिसाब से अपनी दिशा तय कर रहा है। उसे भला बुरा कहने वाले हम कौन। कभी हम पर भी यही सवाल उठाया गया था।
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