ग़ज़ल
ग़ज़ल-
दरो-दीवार सब ढहा होता
ख़ला-ओ-आसमां जिया होता
उसे मालूम आग …
ग़ज़ल
ग़ज़ल-
दरो-दीवार सब ढहा होता
ख़ला-ओ-आसमां जिया होता
उसे मालूम आग …
ग़ज़ल
ग़ज़ल
ख़ुद-परस्ती बन गई इंसान की पहचान क्यूँ
है कहाँ जज़्ब-ए-वफ़ा, …
ग़ज़ल
घर जला मिस्कीन का तो दास्तां हो जाऊंगा
मुफ़लिसों के वास्ते …
ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ज़रूरतों के मुक़ाबिल कभी उठा कीजे
ज़ुबान रखते हैं तो …
ग़ज़ल
ग़ज़ल
दिल को पल-पल ही बेक़रार किया
मज़हब-ए-इश्क़ इख्तियार किया
ज़र्द …
ग़ज़लें
ग़ज़ल
ज़िन्दगी दरअस्ल बस क़िस्सा-कहानी ही तो है
हसरतों की, चाहतों …
ग़ज़ल
ग़ज़ल
तुझे जानूँ, तुझे समझूँ, तुझे कुछ यूँ निखारुं मैं
भले …