कथा-कुसुम
लघुकथा- विकास
“यार, मानना पड़ेगा, बहुत तेजी से विकास हो रहा है अपने यहाँ!” पेड़ के नीचे बैठे, अखबार पकड़े शर्मा जी ने कहा।
“सुना है, यहाँ से भी बड़ी सड़क निकलनी है।” मित्र ने कहा।
“अरे गोपाल जी, अब तो महानगर के निवासी हो आप।” तीसरे मित्र ने भी अपनी उपस्थिति दी।
“तो क्या अपने को महानागरिक कहना शुरू कर दें।” गोपाल जी ने छाती फुलाकर मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, और सब ठहाके लगाने लगे।
अगले दिन-
क्रेन में बंधकर वो पेड़ धीरे-धीरे दूर जाता दिख रहा है, साथ में उसमें लिपटे मन्नत के धागे और फंसी हुई पतंगें भी।
लघुकथा- वेबकैम
“तुम रहने दो, उसे मैं ख़ुद ही साफ कर लूँगा।” सिंह साहब ने अपने नौकर को टोका, जो घर के सामान की सफाई करते-करते कम्प्यूटर टेबल तक पहुँचा था।
पुरानी घड़ी, आराम कुर्सी और छड़ी से भी ज्यादा अब ये वेबकैम जो प्यारा हो चला है।
महीने में एकाध बार ही सही, पोते का चेहरा तो दिखाता है।
लघुकथा- अजीब सवाल
कॉलोनी के पहले का सुनसान स्थान। एक पेड़ की छाँव में रुककर मैं फोन पे बात कर रहा था। तेज कदमों से चलता हुआ एक आदमी मेरे पास आया।
“आज कौन वार… बाबू?”
जैसे ही मैंने उसके इस अजीब सवाल का जवाब दिया। तुरंत दूसरा अजीब सवाल-
“यहाँ कौन जात के ज्यादा हैं?”
जवाब पाकर वह तेजी से कॉलोनी के अंदर चला गया।
कुछ देर बाद
मैं घर पहुँचकर आराम करने के लिए लेटा ही था कि दरवाजे पर भिखारी की आवाज़ आई।
बाहर आकर देखा तो वही चेहरा था, पर कपड़े का रंग बदला हुआ था और बोलने का तरीका भी। उसके वो दोनों सवाल अब अजीब न रहे। बल्कि मेरे मन में एक अजीब सवाल आ रहा है कि हम भगवान को दिनों, रंगों के हिसाब से क्यूं बाँटते हैं?
लघुकथा- पर्यावरण दिवस
गाड़ियों का बड़ा काफिला आकर रुका। बड़े साहब उतरे। कुछ ज्यादा जल्दी में लग रहे थे।
“ये मैदान साफ क्यूँ नहीं हुआ अब तक?” मातहतों पर गरजे।
“और मंच का इंतजाम हो गया?”
“ठेकेदार को बुलवाईये। काम जल्दी पूरा करवाएँ।”
और कुछ दिनों बाद
काम शुरू। गाँव की कोमल, उपजाऊ मिट्टी मोटे कांक्रीट से दबायी गई। पार्किंग मैदान की सुंदर घास टायरों के नीचे कुचली गयी। सैकड़ों बांस-बल्लियों से मंच बना। फूलों, मालाओं, गुलदस्तों को स्वागत-सत्कार में बर्बाद किया गया।
अंततः नेता जी ने एक पौधा लगाया। बाकियों ने फोटो खिंचवाया।
– नरेन्द्र मिश्रा