ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
अपनी आँखों को कभी ठीक से धोया ही नहीं
सच कहूँ आज तलक ख़ुल के मैं रोया ही नहीं
मेरे लफ़्ज़ों से मेरा दर्द झलक जाता है
जबकि इस दर्द को आवाज़ में बोया ही नहीं
इक दफ़ा नींद में ख़्वाबों का जनाज़ा देखा
बाद उसके मैं कभी चैन से सोया ही नहीं
तंग गलियों में मुहब्बत की भटकते हैं सब
मैंने कोशिश तो कई बार की, खोया ही नहीं
साँस रुक जाये तड़पते हुए यादों में कहीं
हिज्र का बोझ कभी दिल पे यूँ ढोया ही नहीं
मैं कहानी में नया मोड़ भी ला सकता था
मैंने किरदार को आँसू में भिगोया ही नहीं
मारने के यूँ कई दाँव चले उसने पर
‘मीत’ को इश्क़ के दलदल में डुबोया ही नहीं
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ग़ज़ल-
ग़रज़ पड़ने पे उससे माँगता है
ख़ुदा होता है या’नी मानता है
कई दिन से शरारत ही नहीं की
मेरे अंदर का बच्चा लापता है
बुरे माहौल से गुज़रा है ये दिल
मुहब्बत लफ़्ज़ से ही काँपता है
ये कच्ची उम्र का आशिक़ को देखो
ज़रा रूठे कलाई काटता है
अभी मंज़िल दिखायी भी नहीं दी
अभी से ही तू इतना हाँफता है
गुनाहों की सज़ा सब दूसरों को
गिरेबां कौन अपना झाँकता है
अजब कारीगरी है ‘मीत’ उसकी
बदन को रूह पे वो टाँकता है
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ग़ज़ल-
ये लगता है अब भी कहीं कुछ बचा है
तुम्हारा दिया ज़ख़्म अब तक हरा है
कहो कौनसी शक़्ल देखोगे अब तुम
ये चेहरा तो इक आवरण से ढका है
लगा है ज़माना इबादत में जिसकी
वो रहता कहाँ है? तुम्हें कुछ पता है
गुनाहों से तौबा करो वक़्त रहते
वगरना तो दोज़ख का रस्ता खुला है
मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत
अमां यार छोड़ो ये हल्का नशा है
भलाई के बदले बुराई मिले है
ये क़िस्सा मेरी ज़िन्दगी से जुड़ा है
ग़लतफ़हमियाँ ‘मीत’ रक्खो न दिल में
वही सच नहीं जितना तुमने सुना है
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ग़ज़ल-
सुनो यार इसकी घुटन कुछ नहीं है
किसी दर्द की अब चुभन कुछ नहीं है
खिलौने हैं मिट्टी के हम सब यहाँ पर
हक़ीक़त यही है बदन कुछ नहीं है
ये माना कि पैकर बहुत कुछ है लेकिन
बिना रूह ये पैरहन कुछ नहीं है
लगी आग ख़्वाबों में इतनी कि समझो
ये आँखों की मेरे जलन कुछ नहीं है
मैं ख़ुद मुस्तक़िल हूँ सफ़र में सो मुझको
ये लगने लगा है थकन कुछ नहीं है
नुमाइश है सब ‘मीत’ मेरे ग़मों की
ग़ज़ल कुछ नहीं है, ये फ़न कुछ नहीं है
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ग़ज़ल-
नज़र भर के यूँ जो मुझे देखता है
बता भी दे मुझको कि क्या सोचता है
मुहब्बत नहीं, जैसे क्या कर लिया हो
ज़माना मुझे इस क़दर टोकता है
दिसम्बर की सर्दी है उसके ही जैसी
ज़रा-सा जो छू ले बदन काँपता है
लगाया है दिल भी तो पत्थर से मैंने
मेरी ज़िंदगी की यही इक ख़ता है
जिसे देख के ग़म भी रस्ता बदल दे
वो चेह्रा न जाने कहाँ लापता है
कोई बात दिल में यक़ीनन ही है जो
वो मिलते हुए ग़ौर से देखता है
उसी की गली का कोई एक लड़का
मुहब्बत का मुझसे हुनर पूछता है
न ढूँढो कहीं भी मिलूँगा यहीं पे
ये उजड़ी हवेली ही मेरा पता है
कि अब ‘मीत’ को फ़र्क पड़ता नहीं है
कोई उसके बारे में क्या सोचता है
– अमित शर्मा मीत