ग़ज़ल
ग़ज़ल
दिल को पल-पल ही बेक़रार किया
मज़हब-ए-इश्क़ इख्तियार किया
ज़र्द पत्तों को हाथ पर रख कर
शाम को, ख़ुद को, सोगवार किया
साँस मौसम की तेज़ चलने लगी
तुमने हल्का सा जो सिंगार किया
हमने रुक कर तुम्हारी राहों में
अपना अक्सर ही इंतज़ार किया
मुस्कुराता हूँ तेरे गाम तले
ज़िंदगी ने तो अश्क़बार किया
तुझसे वाबस्ता सब भुला देंगे
हुआ हमसे नहीं, हज़ार किया
दोस्तों को मिली अजब राहत
बेवजह दर्द आशकार किया
रोज़ चुनता हूँ शब के रेज़ों को
इश्क़ का जबसे कारोबार किया
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ग़ज़ल
एक सपना तलाश करता हूँ
कोई अपना तलाश करता हूँ
अब्र पारों में शाम ढलने पर
एक चेहरा तलाश करता हूँ
खोया कुछ भी नहीं है मेरा यहाँ
फिर भी क्या-क्या तलाश करता हूँ
हो मुक़द्दस, अज़ान की खुशबू-सा
कोई ऐसा तलाश करता हूँ
कितना सच था तुम्हारी बातों में
तुमसा झूठा तलाश करता हूँ
बादलों के मुहीब झुरमट में
सहमा चंदा तलाश करता हूँ
मैं हूँ तकमील के मराहल में
कुछ अधूरा तलाश करता हूँ
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ग़ज़ल
गुनगुनाती है हवा, फूलों के मौसम आये
लौटकर काश के इस रुत में वो हमदम आये
तेरी आवाज़ जो खनके तो चटक जाता हूँ
काश गुँचों को तेरे लहज़े की सरगम आये
जब तलब ने तेरी बेचैन बहुत दिल को किया
आये झोंके जो हवाओं के वो पुर नम आये
इस बयाबान में रफक़त की ज़रूरत है मुझे
अजनबी आये के फिर कोई भी हमदम आये
मैं तुझे भूल न जाऊँ कहीं, डर लगता है
झूम कर अब किसी जानिब से तेरा ग़म आये
जाने क्या बात है बेहिस्स सा हुआ जाता हूँ
चांदनी रात है तुम याद भी कम कम आये
दिल तो भर आया सर-ए-शाम तेरी फुरक़त में
कब न जाने मेरी इन आँखों में शबनम आये
जब भी आया मेरे शाने पे तेरा नर्म सा हाथ
कहकशां झूम उठे, रस्तों पे रेशम आये
जब भी मिलते हो, तरन्नुम-सा ब’पा रहता है
धड़कनों से तेरी पाज़ेब की छम-छम आये
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ग़ज़ल
तुम्हारे शहर में अब रौशनी नहीं मिलती
के बाम-ओ-दर पे उगी चांदनी नहीं मिलती
हज़ारों ख़ुशियाँ बिछीं जाएँ यूँ तो क़दमों में
जिसे तलाश करे दिल, वो ही नहीं मिलती
सजे हैं लोग मुहर्रम के जैसी क़ब्रों से
खिले हैं चेहरे मगर ज़िंदगी नहीं मिलती
कोई तो है जो है पथराया तेरी सोचों में
उदास आँखों में अब मैकशी नहीं मिलती
हुए हैं आदी सभी दर्द की फ़ज़ाओं के
कोई भी आँख यहाँ शबनमी नहीं मिलती
तू आम निकला, बना भीड़ का मुक़द्दर तू
के बेवफ़ाओं की जग में कमी नहीं मिलती
कुछ ऐसे हँसते हैं कुछ लोग, रोना आता है
जिसे हँसी कहें हम, वो हँसी नहीं मिलती
न हमसफ़र है, न अपना, न कोई बेगाना
मोहब्बतें तो अलग, बेरुख़ी नहीं मिलती
कहाँ से ढूँढ के लाऊँ मैं मीर-ओ-ग़ालिब को
के दिल-गुदाज़ सी अब शायरी नहीं मिलती
– जावेद इक़बाल