ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
तमाम दूरियाँ और फ़ासले मिटाते हुए
ग़म आ रहा था मेरी ओर मुस्कुराते हुए
अँधेरी रात से समझौता कर लिया मैंने
मैं बुझ चुका था चराग़ों की लौ जलाते हुए
उसे पता था मैं आऊँगा डूब जाऊँगा
सो रो रहा था समन्दर मुझे बुलाते हुए
वो शाम याद है, मंज़र वो क़ैद है मुझमें
मैं ख़ुद को भूल गया था तुझे भुलाते हुए
जो ग़ज़लें लिक्खीं थीं तेरे लिए ‘सचिन’ मैंने
नहीं हूँ सोचता महफ़िल में अब सुनाते हुए
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ग़ज़ल-
ठहरता ही नहीं ख़ुशियों का मंज़र डूब जाता है
ग़म इतना है कि जिसमें इक समन्दर डूब जाता है
सितम ये है कभी बाहर की दुनिया भी नहीं देखी
मैं वो आँसू हूँ जो आँखों के अन्दर डूब जाता है
जब अपनी लाश को भी तैरते देखा तो ये जाना
ये बिलकुल झूठ है कैसा भी पत्थर डूब जाता है
ये ग़म ही हैं मेरे भीतर मुझे ज़िन्दा जो रखते हैं
ख़ुशी में तो मेरे भीतर का शायर डूब जाता है
‘सचिन’ कैसी ये आदत सीख ली इस दिल ने सूरज से
ज़रा-सी शाम होते ही ये अक्सर डूब जाता है
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ग़ज़ल-
ज़िन्दगी यूँ सँवार लेंगे हम
ख़्वाहिशें अपनी मार लेंगे हम
तुमको जाना है तुम चले जाओ
वक़्त तन्हा गुज़ार लेंगे हम
तुमसे मिलने का जब भी मन होगा
चाँद नीचे उतार लेंगे हम
सारी दुनिया को नाम रट जाए
तुमको इतना पुकार लेंगे हम
वक़्त इतना बुरा नहीं दिल का
चंद लम्हें उधार लेंगे हम
क्या बताएँ अजब शिकारी हैं
तीर ख़ुद को ही मार लेंगे हम
इश्क़ ग़लती नहीं ‘सचिन’ कोई
जो ये ग़लती सुधार लेंगे हम
– सचिन शालिनी