ग़ज़ल
घर जला मिस्कीन का तो दास्तां हो जाऊंगा
मुफ़लिसों के वास्ते मैं आशियां हो जाऊंगा
वक्त का मारा हूँ हिम्मत तो नहीं हारा हूँ मैं
गर अकेला भी पड़ा चल कारवां हो जाऊंगा
प्यार के क़िस्से सुनाने से मना करती हो तुम
लब पे लब बस जो रखो मैं बेजुबां हो जाऊंगा
हिज़्र की आतिश में दिल कब से रहा है ये तड़प
देख ले जो तू नज़र भर कहकशां हो जाऊँगा
इश्क़ का सावन तो बेशक ही उतरने वाला’ है
भूल से भी जो छुआ तूने फिजां हो जाऊँगा
जीस्त को आयी कभी जो मौत ‘अर्जुन’ तो यहाँ
मैं खुदा-ओ-इश्क़ के फिर दरमियां हो जाऊँगा
*************************************
ग़ज़ल
ज़िंदगी हाथ से चली जाये
ये हवा की तरह बही जाये
बोझ जब से बनी है ये मुझ पर
दिन के मानिंद अब ढली जाये
जीत दुश्मन पे गर है करनी तो
चाल भी कुछ नयी चली जाये
आज तन्हा क्यू चाँद है छत पे
दो घड़ी उससे बात की जाये
आ गया फिर वो तीरगी लेकर
बात फिर रौशनी से की जाये
रात जुगनूं से जगमगायी है
हौंसला देख दाद दी जाये
तीर ‘अर्जुन’ ने अब चलाया है
हाथ से शह न आपकी जाये
– अर्जुन अक़्स