कविता-कानन
समय
आज समय निःशब्द है
क्योंकि
शब्द सीमित हो गये सीमाओं में,
भौगोलिक क्षेत्र की रेखाओं में
और तो और
संस्कृत है तो ब्राह्मणों की है
उर्दू है तो मुसलमानों की
हिन्दी है तो हिन्दुओं की है
तो समय के पास तो कुछ बचा ही नहीं
शायद इसीलिए निःशब्द है!
समय बधिर हो गया है
वह सुन नहीं पा रहा
काल के कोलाहल को,
भूख के शोर को,
और मृत्यु के तांडव को
शायद बधिरत्व के बोध से ही
समय आज मूक है।
अन्याय ने अधर सिले हुए हैं,
श्रम सड़को पर छटपटाहट रहा है,
भोग विलास सत्ता सुख से
खिल-खिला रहा है
बेचारा समय बोले भी तो क्या बोले!
पटरियों पर रेलगाड़ियों की जगह
समपूर्ण रोटियाँ
और टुकड़ों मे बोटियाँ देखकर स्तब्ध है
शायद समय इसीलिए मूक है।
किन्तु हे मनुज!
तुम्हें यह याद रखना होगा
मूक बधिर निःशब्दता
समय की स्वाभाविक प्रकृति नहीं
यह तात्कालिक है
जब समय लिखेगा इतिहास तो
हर एक भाषा मे लिखेगा
समय भोगोलिक, धार्मिक, जातीय सीमाओं का दास नहीं है
समय अति बलबान है
जब समय सुनेगा तो
सिर्फ वादी नहीं
प्रतिवादी को भी सुनेगा
सिर्फ उत्तर नहीं प्रत्युत्तर भी रचेगा
क्योंकि
समय की स्वाभाविक प्रकृति है
रचना धर्मिता
समय हर पल में युगों का इतिहास रचेगा।
समय जब कहना शुरू करेगा
सारे बड़बोले, झूठे, मक्कार
समय के सत्य के समक्ष
गूंगे हो जाएँगे
धाराशायी हो जाएँगे सारे छल प्रपंच
बस एक समय का सत्य ही विजयी हो पाएगा।
मनुष्य की सामर्थ्य कहाँ कि
वह समय को विजित कर पाएगा!
समय
अनिर्णीत है, अभेद्य है, अजेय है
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क्यों करूँ मैं आराधना किसी देव की
क्यों करूँ मैं आराधना किसी देव की!
जबकि तुम प्राण प्रतिष्ठित हो
मेरे उर आलय में।
कान्हा-सा कनक प्रेम तुम्हारा,
शिव शंभु-सा सनातन सानिध्य है।
क्यों करूँ मैं आराधना किसी देव की!
गुरू बृहस्पति-सा गौरव गरिमा तुम्हारी,
पुरूषोत्तम राम-सा अपरिमेय प्रेम है।
क्यों करूँ मैं आराधना किसी देव की!
सूर्य-सा शाश्वत प्रचंड तेज तुम्हारा,
शशि-सा शीतल सुधा सिक्त स्पर्श है।
क्यों करूँ मैं आराधना किसी देव की!
कामदेव-सा मादक आकर्षण तुम्हारा,
विहुंस विरह विष पीने वाले
तुम्हीं तो मेरे नीलकंठ हो।
क्यों करूँ मैं आराधना किसी देव की!
– कुमुद रंजन झा अनुन्जया