कविता-कानन
संवेदनाएँ
ये संवेदनाएँ भी ना!
बड़ी अजीब होती हैं
इसका उद्दीपन?
कितना विचित्र और चिंतनीय है
अख़बारों में अपराध की ख़बरें
इन्हें उद्वेलित करने में सक्षम हैं
किन्तु तब निःशक्त क्यों?
जब बच्चा पहली बार
झूठ बोलता है,
पहली चोरी करता है
है ना विचित्र और चिंतनीय
ये संवेदनाएँ!
सामाजिक असंवेदनशीलता,
वृद्धाश्रम की प्रासंगिकता
कितना जागृत करती है ना
संवेदनाओं को!
यह तब क्यों सुप्त अवस्था में होती हैं
जब दादा-दादी को पानी पिलाने से
पढ़ाई डिस्टर्ब होती है
शिक्षकों का अनादर,
शिक्षकों की ग़लती होती
है ना विचित्र और चिंतनीय
ये संवेदनाएँ!
सच्चाई तो यह है कि
संवेदनाओं का संचार
विष बीज से नहीं,
विष वृक्ष से होता है
ओह!
निरीह, निर्बल, निरीह
ये मासूम संवेदनाएँ!
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तू बिम्ब मेरा
तू बिम्ब मेरा
मैं प्रतिबिम्ब तेरी
सिक्त रहूँ
तेरे आलंभ के निर्मल जल से
यही अनुराग का अपवर्तन है।
ओढ़ लूँ
धवल चाँदनी चाँद से तेरे
यही प्रेम का परावर्तन है।
एकाकार करे जो
वसुधा-व्योम को
प्रकृति से पुरुष का गठबंधन
हो दूरस्थ फिर भी मगर
तेरा-मेरा असीम अदृश्य
नदी के दो किनारों की तरह
अनंत अथाह आलिंगन है।
तू बिम्ब मेरा
मैं प्रतिबिम्ब तेरी।
– कुमुद रंजन झा अनुन्जया