छन्द संसार
महाभुजंगप्रयात् सवैया
बढे सर्वदा ज्ञान कल्याणकारी, गुणों की ऋणी आज सारी धरा हो।
रहे सोच में प्रेम आधिक्य ऐसे, मिले जो उसी का कलेजा हरा हो।
कभी वाद संवाद की बात आये, सभी के लिये शब्द में शर्करा हो।
करो ये कृपा शारदे छन्द मेरा, सदा मातृ भू भक्ति भावों भरा हो।
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बढाना उन्हें व्यर्थ है आज आगे, जिन्होंने निजी स्वार्थ को उच्च जाना।
सहारा लिए जो इसी देश से वे, बनाने लगे हैं इसे ही निशाना।
बिना कर्म के शीर्ष की चाह तो है, नहीं चाहते किन्तु ऊँचा उठाना।
सभी वाद का अंत ही लाभकारी, स्वयं को सदा राष्ट्रवादी बनाना।
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चढ़ें चोटियाँ पंगु भी नित्य ऐसे, असामान्य को किन्तु सामान्य माना।
नहीं उच्चता के लिए युद्ध ठानें, सदा चाहते अन्य को ही गिराना।
जलें देख ऊँचाइयाँ दूसरों की, व भूले इसी में स्वयं को उठाना।
दुखों में न दे साथ भाई कभी जो, सही है वहाँ बंधु का छोड़ जाना।
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बचाया कभी देवियों ने धरा को, सभी नारियाँ रूप वैसा दिखायें।
अड़ी हैं जहाँ कंत रक्षार्थ को तो, वहाँ भानु के पुत्र भी लौट जायें।
गयीं साथ जो युद्ध में तो वहाँ भी, टली हैं बड़ी से बड़ी भी बलायें।
जनें पुत्र ऐसे, बचा मातृ भू ले, सुने देश की शक्ति की मूर्ति मायें।
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नये से नया वाद देखा गया है, थमी सोच तो राष्ट्रवादी थमी है।
दिखें संधियाँ शत्रुओं के दलों में, वहीं बर्फ क्यों मित्रता में जमी है।
स्वयं के जनों से मिली पीर भारी, तभी नेत्र में मातृ भू के नमी है।
जनें पुत्र राणा शिवा बोस वैसी, सही में यहाँ आज माँ की कमी है।
– मुकेश कुमार मिश्र