ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
पल भर हँसी को चेहरे से जाने नहीं दिया
हमने उदासी को कभी आने नहीं दिया
वो चाहते थे खेलना दिल से मेरे मगर
मैंने खिलौना दिल को बनाने नहीं दिया
मिल जाये जिस से गर्द में इज़्ज़त बुजुर्गों की
पलकों को ऐसा ख्वाब सजाने नहीं दिया
मुझ से मेरे सुकून को जो छीन लें ‘अजय’
उन हसरतों को सर ही उठाने नहीं दिया
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ग़ज़ल
वो जिसके वास्ते सब के दिलों में प्यार ज़िंदा है
कभी मरता नहीं है वो सदा किरदार ज़िंदा है
गए बरसों में कितने ही हुए हैं दफ़्न कब्रों में
मगर इक मसअला अब तक यहाँ बेकार ज़िंदा है
जुदा होकर के तुम से यूँ तो कब के मर चुके हैं हम
मगर दिल में तेरी यादों का इक अंबार ज़िंदा है
तू तब तक मर नहीं सकता ग़मों के बोझ से दब कर
‘अजय अज्ञात’ जब तक एक भी ग़मख़्वार ज़िंदा है
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ग़ज़ल
पूछिये मत कैसे कब होने लगा
मैं मुअत्तर सा हूँ अब होने लगा
अंजुमन में जाने ऐसा क्या हुआ
बा अदब भी बेअदब होने लगा
उम्र की दहलीज़ हमने लाँघ ली
ज़िन्दगी से इश्क़ अब होने लगा
क्या वजह है मैं समझ पाया नहीं
मेहरबां वो बेसबब होने लगा
एक भौंरा गुल पे जा बैठा ‘अजय’
बेसबब कुछ ज़ेरे लब होने लगा
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ग़ज़ल
इश्क़ की पाकीज़गी अच्छी लगी
हुस्न की ये सादगी अच्छी लगी
मिल गया जब चाहने वाला कोई
मुझको अपनी ज़िन्दगी अच्छी लगी
देख कर मुझ को पलक झपकी नहीं
आपकी दीवानगी अच्छी लगी
और भी ज़्यादा हसीं चेहरा हुआ
थोड़ी सी नाराज़गी अच्छी लगी
आज खुद से बात की तन्हाई में
आज मुझ को ज़िन्दगी अच्छी लगी
बांध टूटा जा रहा है सब्र का
दीद की ये तश्नगी अच्छी लगी
– अजय अज्ञात