छन्द संसार
दोहे
डाल दिये हथियार सब, बैठ गया फिर मौन।
नर से गिरगिट पूछता, गुरुवर! तुम हो कौन?
बेटा चलता कार में, घर है आलीशान।
बूढ़ी माँ फुटपाथ पर, लगा रही दूकान।।
सन्नाटे को चीरकर, गूँजा एक सवाल।
कालेपन से क्या अभी, बची हुई कुछ दाल।।
मरी हुई संवेदना, कुण्ठित हुए विचार।
यही बढ़ाते जा रहे, धरती पर व्यभिचार।।
गुड़ जब तक बँधकर रहे, मिले दाम भरपूर।
नहीं इसे जग पूछता, यदि हो जाये चूर।।
सरसों, मक्का, बाजरा, मटर-चने की दाल।
प्रतिदिन मुझसे पूछते,मोबाइल पर हाल।।
चंगुल में कानून के, फँसी हुई है जान।
बिकने तक को आ गये, खेत और खलिहान।।
बर्गर जैसे गाल है, चाऊमीन से बाल।
रोबोटों-सी हो गयी, मैडम जी की चाल।।
एक साथ मिलती नहीं, सफल दिनों की भीड़।
तिनका-तिनका जोड़कर, बना लीजिये नीड़।।
– सन्नी गुप्ता मदन