आलेख
कृष्ण भक्ति काव्य में मुस्लिम कवि ‘रसखान’ का योगदान: अन्नू यादव
हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों में ‘रसखान‘ का महत्वपूर्ण स्थान है। ‘रसखान‘ को रस की खान कहा जाता है , इनके काव्य में भक्ति , श्रृंगार रस दोनो प्रधानता से मिलते है। हिन्दी साहित्य का भक्ति युग हिन्दी का स्वर्ण युग माना जाता है। इस युग में हिन्दी से साहित्य के अनेक महाकवियो ने अपनी अनूठी काव्य रचनाओं से साहित्य के भण्डार को सम्पन्न किया। भक्ति का जो आंदोलन दक्षिण से चला वह हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल तक सारे भारत में व्याप्त हो चुका था। उसकी विभिन्न धाराएं उŸार भारत में फैल चुका थी। दर्षन, धर्म तथा साहित्य के सभी क्षेत्रांे में उसका गहरा प्रभाव था। एक ओर साम्प्रदायिक भक्ति का जोर था, अनेक तीर्थ स्थान, मंदिर मस्जिद और अखाडे उसके केन्द्र थे। दूसरी ओर ऐसे भक्त थे जो किसी भी तरह की साम्प्रदायिक हलचल से दूर रह कर भक्ति में लीन रहना पसंद करते थे। रसखान इसी प्रकार के भक्त थे। वे स्वच्छ भक्ति के प्रेमी थे। प्रसिद्ध है कि रसखान ने गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से वल्लभ-सम्प्रदाय के अंतर्गत दीक्षा ली थी। उनके काव्य में अन्य वल्लभानुयायी कृष्ण भक्त कवियों जैसी प्रेम-माधुरी एवं भक्ति-षैली से इस बात की पुष्टि होती है। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता ‘ मे भी उन्हें वल्लभ संप्रदायानुयायी बताया गया है। ‘मूल गुसांई चरित‘ में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्वरचित ‘रामचरितमानस‘ की कथा सर्वप्रथम रसखाान को सुनाने का उल्लेख है – “जमुना तट पै त्रय वत्सर लौ, रसखानहिं जाई सुनावत भौ”
रसखान की गणना भक्त कवियों में की जाती हैं। वस्तुतः वे ‘भक्त‘ और ‘कवि‘ से भी पहले एक सह्नदय भावुक व्यक्ति हैं। उनका अंतर प्रेमताप की उष्णता से विगलित हो कर मानो विविध भाव सरणियों के रूप में उमड पडा है। उनकी इस ऐकांतिक प्रेममयी उमंग ने उनके काव्य को समुचित ‘रसखान‘ बना दिया। बादषाह वंष के जन्मजात मुसलमान रसखान ने स्वंय को राज्यलिप्सा जन्य द्वंद्व से मुक्त कर जिस श्रद्धा प्रेम और भक्तिमय रससागर में निमज्जित किया उसी में उनके वास्तविक काव्य व्यक्तित्व का मधुर रूप ढला। उनके काव्य का प्रमुख रस श्रृंगार है जिसके आलंबन- श्री कृष्ण है।
रसखान कृष्ण भक्त कवि थे। अन्य कृष्ण कवियों की तरह उन्होंने मुक्तक काव्य की रचना की हैै। उनकी प्रमुखतः चार रचनाएं प्रमाणिक मानी जाती है- सुजान रसखान, प्रेमवाटिका, दानलीला, अष्टयाम। ‘सुजान रसखान‘ स्फुट छंदो का प्रतिपाद्य भक्ति, प्रेम, राधा- कृष्ण की रूप-माधुरी, वषी-मोहिनी एवं कृष्ण-लीला संबंधी अन्य सरस प्रसंग है। ‘प्रेमवाटिका‘ के अन्र्तगत कवि ने राधा- कृष्ण को प्रेमोघान के माली-मालिन मानकर प्रेम के गूढ़ तŸव का सूक्ष्म निरूपण किया है। ‘दानलीला‘ में कवि ने प्रसिद्ध प्रामाणिक प्रसंग को राधा कृष्ण संवाद के रूप में चित्रित किया है। ‘अष्टयाम‘ में संकलित कई दोहों के अन्र्तगत श्रीकृष्ण के प्रातः जागरण से रात्रिषयन-पर्यन्त उनकी दिनचर्या एवं विभिन्न क्रीडाओ का वर्णन किया है।
रसखान के अराध्य रसखान ने स्पष्ट षब्दों में कृष्ण के अवतारी रूप को अपनी प्रेम भक्ति का आलम्बन बनाया है।उनका महाप्रभु बाल कृष्ण बनकर देवकी के गर्भ से भावों की कृष्णाष्टमी को उत्पन्न हुआ और जिस प्रभु को योगी लोग अपनी साधना की जाग्रत अवस्था में भी नही्र पा सकते,उसे यषोदा ने रात को अपने पास सोते हुए पाया-
भादव साँवरी आण्ई कौ रसखान महाप्रभु देवकी जायो।
काहू न चैजुग जागत पायौ सो राति जसोमति सोवत पायौ।।
ब्रजबिहारी कृष्ण की रूप माधुरी पर रसखान सौ जान से फिदा हुए हैं।इसी गुजमाल-मोर-मुकुट पीताम्बर-धारी कृष्ण को उन्होंने अपना आराध्य बनाया हैं।इसी के प्रति अपनी अनन्य भावना व्यक्त करता हुआ कवि कहता है कि चाहे कोई ब्रह्मा,गणेष,भवानी,महेष आदि किसी भी देवी-देवता की पूजा और भक्ति करे मेरा तो एकमात्र साध्य कृष्ण है, कृष्ण के सिवाय मुझे किसी की चिंता नहीं,चाहे तीन लोक रहें,न रहे-
सेष सुरेस दिनेस गनेस ब्रजेस धनेस महेस मनावो।
कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै विधि जाइ पुरावो।।
कोऊ रमा भजि लेह महा धन कोऊ कहँ मन बाछित पावौ।
पै रसखानि वही मैरो साधन और त्रिलोक रहौ कि नसावौ।।
रसखान कृष्ण को रक्षक मानते है उनकी आस्था है कि जब वो कृष्ण ‘राखनहारो‘ है तो कोई क्या बिगाङ सकता है। उसकी कृपा और रक्षण पर विष्वास जताते हुए रसखान कहते है कि द्रोपती,गणिका,गज,गीध,अजामिल जैसों का जिसने उद्धार किया,अहिल्या को मुक्ति प्रदान की,प्रहलाद का दुख दूर किया,वह रक्षक हो तो फिर चिन्ता क्या?-
दौपती औ गनिका गज गधि अजामिल सों कियो सो न निहोरो।
गौतम गेहिनी कैसी तरी प्रहलाद कों कैसे हरयौ दुख भारों।।
काहे को सोचि करै रसखानि कहा करि है रविनंद विचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन-चाखनहारो सो राखनहारो।।
रसखान ने अन्य कृष्ण भक्त कवियों की तरह कृष्ण की जन्म लीला से लेकर किषोर और यौवन-लीलाएँ जैसे जन्म ,छठी,गोचारणलीला,कालीयदमन,चीरहरण लीला,कवलापीङ-वध,रासलीला,फाग होली उत्सव आदि का भी एक-एक दो-दो छंदों में वर्णन किया है-
लाल की आज छठी ब्रज लोग आनन्दित नन्द बड्यो अन्हवाता।
चाइन चास बधाइन लै चहुँओर कुटुम्ब आघात न यावत।।
यहाँ वात्सल्य भाव की भक्ति स्पष्ट है।
रसखान का श्रृंगार-वर्णन भी सर्वथा हिन्दी कृष्ण प्रेम वर्णन की परंपरा का परिचायक है।उसमें कही भी सूफी-प्रेम पद्धति का कोई चिह्न नहीं दिखाई देता।नंददास आदि कृष्ण कवियों की तरह यह कृष्ण प्रेम रूपासक्ति पर आधारित है। कृष्ण की मनोहर मूरति और रूप माधुरी पर गोपियाँ और राधामुग्ध हुई रहती है। संध्या के समय गोचारण से आते कृष्ण का मुख-मण्डल देखकर उनका दिन-भर का सारा ताप समाप्त हो जाता है-
”देखि सु आनन कौं रसखानि ताजौ सब घोस को ताप कसाला।”
इस रूप माधुरी के गंभीर प्रभाव का वर्णन रसखान ने अनेक पद्यों में किया हैं।न केवल नैन उस रूप सुधा का पान करने को ललचाते रहते हैं और गोपियाँ लोक लाज त्याग कर उसके दर्षनों को व्याकुल रहती है,अपितु कृष्ण को देखकर वे अपने तन-मन की सुध खो बैठती है,सिर पर रखा दधि-भाजन गिरकर फूट जाता है और लाज का नाता टूट जाता है-
धूटि गयौ रसखानि लखैं उर भूलि गई तन की सुधि सातो।
फूटि गयौ सिर तै दधि-भाजन छूटिगौै नैनन लाज को नातो।।
वही कृष्ण भी नटखट हैं। गोपियाँ नीर-भरन को जाती हैं तो रोकटोक करता है, दधि बेचने जाती है तो दधि-दान लेता है। अकेली पडी गोपी की तो लाज ही ले लेता और मनभाय करता हैः
काह कहूँ सिगरी री बिथा रसखानि लियौ हाॅसि कै मुसकायौ।
पाले परी मैं अकेली लली, लला लाज लियौ सुकियो मन-भायौ।।
रसखान ने राधा- कृष्ण और कृष्ण-गोपियों के होलीफाग- मिलन का वर्णन किया है। इस संयोग में क्षणिक मान भी रस घोलता है। एक मानवती गोपी सखियों के मनाने पर जरा भी नहीें मानी, ऋतु सुहावनी हो गई तो उसका रोष कपूर की तरह उड़ गया-
सखियाँ मनुहारि कै हारि रहीं भृकुटी की न छोर ललीं नयौ।
चहुघा घन घोर नयौ उनयौ नभ नायक ओर चितै चितयौ।।
रसखान ने संयोग अन्र्तगत प्रकृति के उðीपन का विषेष वर्णन नहीं किया। न उसके संयोग में षंडऋतु का वर्णन किया है। न वियोग में बारह मासा वर्णन। वियोग का अपेक्षाकृत कम वर्णन हुआ है। कृष्ण के पलकोतर विरह का वर्णन र्पूवरोग था रूपलिप्सा के ही रूप में हुआ है। कृष्ण के मथुरा चले जाने से ही वास्तविक विरह की स्थिति उत्पन्न होती है। गोपी ने कृष्ण के प्रेम मे सब न्यौछावर कर दिया, पर कृष्ण ने यह क्या किया कि मुहँ मोड कर ही चला गया!
वा मुुस्कान पै आन दियौ जिय-जान दियै वहि तान पै प्यारी।
मान दियौ मन-मानकि के संग वा मुख मंजु पै जोवन बारी।।
वा तन कौ रसखानि पै री तन ताहि दियौ नहिं ध्यान बिचारी।
सो मुहै मोरि करी अव का हुए लाल लै आज समाज मै रब्वारी।।
बसंत ऋतु विरहणी की तरह विरह ज्वाला की तरह धधका रही है। बागो में खिले फूल उन पर गूँजते भँवरे, मोरो का षोर, कोयल की काकली सबके ह्नदय को बंधे रहे है। ऐसी मादक ऋतु में सबके कंत विदेष से आ जाते हैं पर कृष्ण ने कैसी निठुरता बरती है कि इस विरह-व्यथा का तनिक भी विचार नहीं करता;
‘ऐसी कठोर महा रसखान जु नेकहु मोरी थे पीर न पावत।‘
गोपियों की दषा बहुत बुरी हो गई है-
मग हेरत घूंघरे नैन भए रसना नट बा गुन गावन की।
अंगुरी गानि हार थकी सजनी सगुमौती चलै नहिं आवन की।।
पथिकौ कोऊ, ऐसोजु नहिं कहै सुधि है रसखान के आवन की।
मन भावन आवन सावन में कही औधि करी डग बावन की।।
मार्ग जोहते आखें धुंधली पड गई, गुण-गान करते जीभ थक गई हैं। अवधि गिनते-गिनते अगुलियाँ थक गई हैं, पर कृष्ण के आने का कोई षकुन नहीं मिला। कोई पथिक उस मनभावन के आवन की सुचना नहीे देता। अवधि भावन के डग की तरह बढती जा रही है।
रसखान की काव्यभाषा षुद्ध, परिमार्जित एवं साहित्यिक ब्रज है। माधुर्य एवं सहज समावेष ने उनकी काव्य भाषा को अत्यंत सरस और सजीव बना दिया। विभिन्न लाक्षणिक प्रयोगों के कारण इसमें जो चुटीलापन आ गया है उससे इसकी अर्थवत्ता ओर बढ़ गयी है। षब्द चमत्कार से मुक्त रहकर रसखान ने यह सि़़द्ध किया है कि सरल और स्वाभाविक भाषा में रचित काव्य सह्नदयों मे ह्नदय को आनन्द प्रदान कर सकता है। वे प्रेम और श्रृगांर के कवि हैं, अतः उन्होंने अपने विषय के अनुरूप सवैया, कवित्त एवं दोहा छन्दो को काज रचना के माध्यम के रूप में अपनाया। अपने युग में सम्पूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य के गेय पदों में रचे जाने की परम्परा होते हुए भी रसखान द्वारा कवित एवं सवैया छंद को अपनना अपनी स्वच्छंद वृत्ति का सूचक है। वे किसी परम्परा के बंधन में नहीं बंधे। उनकी भक्ति किसी साम्प्रादायिक सिद्धान्त के आबद्ध नहीं है। उनका प्रेम-निरूपण सूफिूूयों की प्रेम-पद्यति का अनुकरण न होकर स्वच्छंद है। उनका श्रृंगार चित्रण किसी रीति विषेष में सीमित नहीं है। उनको भक्ति ह्नदय की मुक्त साधना है और उनका श्रृंगार वर्णन भावुक ह्नदय की उन्मुक्त अभिव्यक्ति। उनके काव्य में उनके स्वच्छंद मन के सहज उद्गार है। इसलिए उन्हें स्वच्छंद काव्यधारा का प्रर्वतक कहा जाता है।
संदर्भ-
1. मध्यकालीन कृष्णकाव्य,डाॅ. कृष्णदेव झारी,षारदा प्रकाषन,नई दिल्ली,संस्करण-1972
2. सूर सौन्दर्य,डाॅ॰ सरला षुक्ल,कल्पकार प्रकाषन,लखनऊ, संस्करण-1923
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास,डाॅ. नगेन्द्र,नेषनल पब्लिषिंग हाउस,नई दिल्ली,संस्करण- 2011
– अन्नू यादव