कविता-कानन
कविता की किरचें
लोग पूछते हैं
आप कविता लिखती हैं
मैं कहना चाहती हूँ
नहीं, मैं कविता नहीं लिखती
हाँ, चलते-फिरते मुझे दिखती हैं
भावनाओं की चिन्दियाँ
कुछ किरचें चुभती हुईं-सी
दरारों से झाँकती मजबूरियाँ
घुटी हुई कुछ आवाज़ें
अटकी पड़ी कुछ गुत्थियाँ
चुन लेती हूँ इन टुकड़ों को
चिपका देती हूँ कागज़ पर
पंक्ति दर पंक्ति
छिपा देती हूँ पन्नों में
खोलती हूँ जब वह सफ़ा
तो दिखती हैं वे मजबूरियाँ
वही गुत्थियाँ, वही चिन्दियाँ
लोग कहते हैं-
वाह, क्या कविता लिखी है!
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कविता का मरहम
सुनो, सफ़र पर निकल रहे हो
सामान अपना सब बाँध लेना
अपने टॉयलेट बैग में
कंघी और ब्रश के साथ
एक कविता भी रख लेना
सारे दिन की रेलमपेल में
जब इंसान मशीन में तब्दील हो जाये
तो वापस उसे इंसान बनाना
एक कविता का मरहम लगाना
उसे याद दिलाना
वह मशीन नहीं
इंसान है
– डॉ. नूपुर जैसवाल