कविता-कानन
उन दिनों
जेठ का महीना था
बहुत हसीन शाम हुआ करती थी उन दिनों
जब नकलीपन की झाड़ियाँ
पनपा नहीं करती थीं
न तुम में, न मुझ में
इनकी कंटीली टहनी
हमारी बातों को उलझाया नहीं करती थी
उन दिनों की गर्मी में
मेरे पसीने से तर रूमाल में
न जाने कितने अफसाने तर थे
हर दाग रूमाल के
न जाने कितने किस्से कहते थे
खैर,,,
चार बजने को है
दफ्तर की फाईल से गुफ्तगू हो चुकी
घर पे कुछ तन्हा पल इंतज़ार मे होंगे
रूदन की सिसकियाँ लिए हुए
सुना है…
सिसकियों में शोर नहीं होते
कभी नहीं…!
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यादें
आज फिर खाने के मेज से
भूख को लौटा लाया
वो तुम्हारा खाने पे बुलाने का अंदाज़
यादों के गर्भ से निकलकर
खींच लाया वर्तमान में
मुझे वर्तमान में जीना नहीं आता
और तुम मुझे वर्तमान में यादों की
धक्का-मुक्की के साथ जीने को
निर्दयता के साथ पल-पल
न जाने क्यों
प्रेरित करती रहती हो
क्यों करती हो ऐसा?
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रोटी
पैडल पर पैरों की थाप आज तेज थी
और हो भी क्यों नहीं
उधर घर पर भूख रस्ता देख रही
पानी की कुछ घूँट
और शांत हो गयी उसकी क्षुधा
आज उसके पैडल ने
सबके लिये कमाई थी
पूरी एक-एक रोटी
– राहुल तिवारी