सूनी रात
रात थी,
चाँद था,
तारे थे,
हवा थी,
ख़ुशबू थी,
सब-कुछ था
तुम नहीं थे मेरे साथ
मेरे लिए कुछ भी नहीं था
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बंद कमरे में उत्सव
कमरा
बंद रहता है
फिर भी आ जाती हैं
तमाम बंधन तोड़कर
तुम्हारी यादें
चुपचाप-सी घुस जाती हैं
हल्के-से
सरसराहट करती हुई
मेरे बिस्तर में
ले लेती हैं सर से पाँव तक
आगोश में मुझे
जिसका असर होने लगता है
मेरे शिथिल हो चुके
शरीर पर
उमंगें उमड़ने लगती हैं
मस्तिष्क के भीतर
संचारित होने लगता है रक्त
तमाम कोशिकाओं में
धाराप्रवाह
मन में बजती
तरंगों के बीच
फिर मैं नहीं रह जाता तनहा
ओढ़कर सो जाता हूँ
तुम्हारी सरगोशियों की चादर
खो जाता हूँ
तुम्हारी यादों में
फिर से
बंद कमरे में
उत्सव मनाते हुए
- मुकेश पोपली